चाणक्य नीति
धनहीनो न च हीनश्च धनिक स सुनिश्चयः।
विद्या रत्नेन हीनो यः स हीनः सर्ववस्तुषु।।1।।
One destitute of wealth is not destitute, he is indeed rich (if he is learned); but the man devoid of learning is destitute in every way.
भावार्थ- जिसके पास धन नहीं है वो गरीब नहीं है, वह तो असल में रहीस है, यदि उसके पास विद्या है. लेकिन जिसके पास विद्या नहीं है वह तो सब प्रकार से निर्धन है.
ब्याख्या- जो व्यक्ति धन से हीन है वह दीन हीन नहीं है यदि वह विद्या रूपी धन से युक्त है वह महा धनी है क्योंकि विद्या सभी धनो से बड़ा धन है किंतु जो व्यक्ति धन दौलत से तो भरा पूरा है किंतु विद्या रूपी धन से हीन है उसे सभी वस्तुओं से हीन समझना चाहिए । तात्पर्य है कि धन से हीन होना हीनता नहीं मानी जाती हीनता है बुद्धि से हीन होना।
दृष्टिपुतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् ।
शास्त्रपूतं वदेद्वाक्यं मनःपूतं समाचरेत् ।।2।।
We should carefully scrutinise that place upon which we step; we should drink water which has been filtered; we should speak only those words which have the sanction of the satras; and do that act which we have carefully considered. - Chanakya
भावार्थ- हम अपना हर कदम फूक फूक कर रखे. हम छाना हुआ जल पिए. हम वही बात बोले जो शास्त्र सम्मत है. हम वही काम करे जिसके बारे हम सावधानीपुर्वक सोच चुके है.
ब्याख्या- पांव उठाने से पहले व्यक्ति को देख लेना चाहिए कि उसका पांव कहां पड़ेगा। बेध्यानी एवं लापरवाही से अंधाधुंध चलने वाले सदा ही चोट खाते हैं। अतः व्यक्ति को मार्ग की परीक्षा करके देखभाल कर अगला कदम रखना चाहिए। जल को वस्त्र से छानकर पीना चाहिए ताकि आंखों से ना देखने वाले सूक्ष्म कीटाणुओं से बचा जा सके। व्यक्ति को सहस्त्र मरम्मत सत्य, शुद्ध और मधुर वाणी ही बोलनी चाहिए तथा मन में सोच विचार कर दूसरों से शुद्ध आचरण करना चाहिए।
सुखार्थी चेत्यजेद्विद्यां विद्यार्थी चेत्त्यजेत्सुखम् ।
सुखार्थीनः कुतो विद्या सुखं विद्यार्थिनः कुतः ।।3।।
He who desires sense gratification must give up all thoughts of acquiring knowledge; and he who seeks knowledge must not hope for sense gratification.
भावार्थ- जिसे अपने इन्द्रियों की तुष्टि चाहिए, वह विद्या अर्जन करने के सभी विचार भूल जाए. और जिसे ज्ञान चाहिए वह अपने इन्द्रियों की तुष्टि भूल जाये. जो इन्द्रिय विषयों में लगा है उसे ज्ञान कैसा, और जिसे ज्ञान है वह व्यर्थ की इन्द्रिय तुष्टि में लगा रहे यह संभव नहीं.
ब्याख्या- कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है तभी कुछ प्राप्त होता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि चाहने वाले को विद्या प्राप्ति का विचार त्याग देना चाहिए और विद्याभिलाषी को सुख की कामना नहीं करनी चाहिए। विद्यार्थी यदि आराम परस्त होगा तो उसे विद्या की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती और कोई आराम पसंद, आलसी व्यक्ति चाहे कि वह कोई विद्या प्राप्त कर लें तो यह भी असंभव है।
कवयः किं न पश्यन्ति कि न कुर्वन्ति योषितः ।
मद्यपाः किं न जल्पन्ति किंन खादन्ति वायसाः ।।4।।
What is it that escapes the observation of poets? What is that act women are incapable of doing? What will drunken people not prate? What will not a crow eat?
भावार्थ- वह क्या है जो कवी कल्पना में नहीं आ सकता. वह कौनसी बात है जिसे करने में औरत सक्षम नहीं है. ऐसी कौनसी बकवास है जो दारू पिया हुआ आदमी नहीं करता. ऐसा क्या है जो कौवा नहीं खाता.
ब्याख्या- प्रस्तुति श्लोक में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि कवि क्या नहीं देखता वह ऐसी ऐसी उपनाएं देते हैं कि लोग दंग रह जाते हैं। एक कहावत भी है जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि अर्थात कवि की दृष्टि और सोच बहुत दूर तक जाती है।
इस श्लोक के दूसरे खंड में आचार्य कहते हैं कि स्त्रियां क्या नहीं कर सकती? पूर्व में बताया जा चुका है कि स्त्री पुरुष से कई गुना अधिक दु:साहसी होती हैं और अंजाम की परवाह किए बिना कुछ भी कर गुजरती हैं।
इस श्लोक के तीसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि शराबी क्या नहीं बकते अर्थात विवेक हीन होकर भी किसी को भी अनाप-शनाप कुछ भी बक देते हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि कौया क्या नहीं खा लेता। वह गंद,मैला,सडा मांस , सब कुछ खा लेता है
रंक करोति राजानं राजानं रंकमेवच ।
धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं विधिः ।।5।।
Fate makes a beggar a king and a king a beggar. He makes a rich man poor and a poor man rich.
भावार्थ- नियति एक भिखारी को राजा और राजा को भिखारी बनाती है. वह एक अमीर आदमी को गरीब और गरीब को अमीर.
ब्याख्या- आचार्य चाणक्य उपरोक्त में बताते हैं कि भाग्य की महिमा अपरम्पार है तथा उसकी लीला पर किसी का कोई बस नहीं चलता। कल क्या होने वाला है कोई नहीं जानता। केवल ईश्वर ही जानता है। प्रारब्धों के चलते राजा रंक बन जाता है और तुरंत राजा।
लुब्धानां याचकः शत्रुमूर्खाणां बोधको रिपुः ।
जारस्त्रीणां पतिः शत्रुश्चौराणां चन्द्रमा रिपुः ।।6।।
The beggar is a miser's enemy; the wise counsellor is the fool's enemy; her husband is an adulterous wife's enemy; and the moon is the enemy of the thief.
भावार्थ-भिखारी यह कंजूस आदमी का दुश्मन है. एक अच्छा सलाहकार एक मूर्ख आदमी का शत्रु है.
1. वह पत्नी जो पर पुरुष में रूचि रखती है, उसके लिए उसका पति ही उसका शत्रु है....
2. जो चोर रात को काम करने निकलता है, चन्द्रमा ही उसका शत्रु है.
ब्याख्या- मांगने वाला व्यक्ति लोभियों का शत्रु होता है। मूर्खों का शत्रु उनको शतउपदेश देने वाला होता है। पति व्यभिचारणी स्त्रियों का शत्रु होता है तथा चोरों का शत्रु चंद्रमा होता है। प्रस्तुत श्लोक में स्वभाव विशेष है। लोभी को याचक शत्रु दिखाई देता है क्योंकि वह उसके स्वभाव से बिपरीत है। मूर्ख को उपदेश देने वाला शत्रु दिखाई देता है।
इस संदर्भ में पंचतंत्र नामक पुस्तक में बया और बंदर की कहानी प्रचलित है। दुराचारी स्त्री का पति सदा उसकी आंखों खटकता करता है क्योंकि वह उसके रंग में रंगा नहीं होता। जो व्यभिचारणी स्त्री का समर्थक हो वस्तुतः वह पति नहीं भडुआ होता है इसी प्रकार चंद्रमा चारों दिशा प्रकाश फैला कर चोरों के कार्य में बाधा डालता है इसलिए चोर चंद्रमा को अपना शत्रु समझते हैं।
येषां न विद्या न तपो न दानंन चापि शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।7।।
Those who are destitute of learning, penance, knowledge, good disposition, virtue and benevolence are brutes wandering the earth in the form of men. They are burdensome to the earth.
भावार्थ- जिनके पास यह कुछ नहीं है...
विद्या
तप
ज्ञान
अच्छा स्वभाव.
गुण.
दया भाव वो धरती पर मनुष्य के रूप में घुमने वाले पशु है. धरती पर उनका भार है.
ब्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि कुछ व्यक्ति अपना जीवन व्यर्थ ही गवा देते हैं। जिन व्यक्तियों के पास ना विद्या है ना तप है, ना दान देने की प्रवृत्ति है ना सदाचार के पालन की भावना है ना किसी प्रकार का कोई अन्य गुण है और ना ही धर्म पालन में जिनकी रूचि है ऐसे व्यक्ति इस संसार में मनुष्य के रूप में भूमि पर चढ़ने वाले पशु समान होते हैं। ऐसे व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है।
अन्तः सारविहीनानामुपदेशो न जायते ।
मलयाचलसंसर्गान्न वेणुश्चन्दनायते ।।8।।
Those that are empty-minded cannot be benefited by instruction. Bamboo does not acquire the quality of sandalwood by being associated with the Malaya Mountain.
भावार्थ- जिनके भेजे खाली है, वो कोई उपदेश नहीं समझते. यदि बास को मलय पर्वत पर उगाया जाये तो भी उसमे चन्दन के गुण नहीं आते.
ब्याख्या- कहते हैं हिमालय से चलने वाली वायु के स्पर्श से मामूली पेड़ भी चंदन बन जाते हैं अर्थात चंदन की खुशबू से सराबोर हो जाते हैं किंतु बांस अन्दर से पोला होता है अतः उस पर कोई असर नहीं होता ऐसे ही किसी परमात्मा का कितना भी श्रेष्ठ उपदेश हो, भीतरी योगिता से शुन्य, मलिन ह्रदय वाले व्यक्तियों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
दूसरों से कोई गुण ग्रहण करने के लिए अपने भीतर भी कुछ योग्यता होनी चाहिए। मूर्ख व्यक्ति भले ही पूरी आयु किसी विद्वान की संगति में गुजार दें किंतु यदि उसमें गुणों को ग्रहण करने की योग्यता नहीं है तो वह मूर्ख ही रहेगा।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ।।9।।
What good can the scriptures do to a man who has no sense of his own? Of what use is as mirror to a blind man?
भावार्थ- जिसे अपनी कोई अकल नहीं उसकी शास्त्र क्या भलाई करेंगे. एक अँधा आदमी आयने का क्या करेगा.
व्याख्या- आचार्य चाणक्य उपरोक्त श्लोक में बताते हैं की जिनमें ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता है ज्ञान उन्हीं के लिए लाभदायक और फलदायक है अयोग्य के लिए नहीं। उसके लिए तो वेद शास्त्र आदि उसी प्रकार महत्वहीन है जिस प्रकार अंधे के लिए सीसा।
दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूतले ।
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत् ।।10।।
Nothing can reform a bad man, just as the posterious cannot become a superior part of the body though washed one hundred times.
भावार्थ- एक बुरा आदमी सुधर नहीं सकता. आप पृष्ठ भाग को चाहे जितना साफ़ करे वो श्रेष्ठ भागो की बराबरी नहीं कर सकता.
ब्याख्या- ऐसा कोई भी उपाय इस पृथ्वी पर नहीं है जिससे दुर्जन व्यक्ति को सज्जन बनाया जा सके। आचार्य चाणक्य ने ऐसे दुष्ट को मल त्यागने वाले इन्द्री के समान बताया है जैसा कि गुदा को साबुन पानी से कितना भी धो लो स्वच्छ कर लो किंतु वह श्रेष्ठ इंद्रिय अर्थात मुख नहीं बन सकती।
व्याख्याकार आचार्य चाणक्य की इस बात से सहमत नहीं है।
दुर्जन से दुर्जन व्यक्ति भी संत का संग पाकर श्रेष्ठ मुनि हुए हैं इसका उदाहरण बाल्मीकि से लिया जा सकता है। वे दस्यु से महर्षि बने दूसरा उदाहरण डाकू अंगुलिमाल का मिलता है जो बुद्ध की शरण में जाकर भिक्षु हुए जहां तक गुदा की शुद्धि की बात है तो उससे मुख्य कार्य नहीं लिया जा सकता। ऐसा प्रयास करना मूर्खता है।
आप्तद्वेषाद्भवैन्मृत्युः परद्वेषाध्दनक्षयः ।
राजद्वेषाद्भवेन्नशो ब्रह्मद्वेषात्कुलक्षयः ।।11।।
By offending a kinsman, life is lost; by offending others, wealth is lost; by offending the king, everything is lost; and by offending a brahmana one's whole family is ruined.
भावार्थ- अपने निकट संबंधियों का अपमान करने से जान जाती है.
1.दुसरो का अपमान करने से दौलत जाती है.
2.राजा का अपमान करने से सब कुछ जाता है.
3.एक ब्राह्मण का अपमान करने से कुल का नाश हो जाता है.
ब्याख्या- प्रस्तुति श्लोक में आचार्य चाणक्य ने द्वेष से होने वाली हानि पर प्रकाश डाला है द्वेष चाहे स्वय से हो या दूसरों से अंततः हानिकारक ही सिद्ध होता है और हानि भी ऐसी की प्राण ही नहीं कुल भी नष्ट होने की स्थिति बन जाती है। अतः व्यक्ति को चाहिए कि द्वेष से मुक्त हो।
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालयं पक्वफलाम्बुसेवनम् ।
तृणेषु शय्या शतजीर्णबल्कलं न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम् ।।12।।
It is better to live under a tree in a jungle inhabited by tigers and elephants, to maintain oneself in such a place with ripe fruits and spring water, to lie down on grass and to wear the ragged barks of trees than to live amongst one's relations when reduced to poverty.
भावार्थ- यह बेहतर है की आप जंगल में एक झाड के नीचे रहे, जहा बाघ और हाथी रहते है, उस जगह रहकर आप फल खाए और जलपान करे, आप घास पर सोये और पुराने पेड़ो की खाले पहने. लेकिन आप अपने सगे संबंधियों में ना रहे यदि आप निर्धन हो गए है.
ब्याख्या- प्रस्तुति श्लोक में आचार्य चाणक्य ने धनहीन होने पर बंधु बांधव द्वारा किए जाने वाले अपमान से होने वाले कष्ट से उपरोक्त कष्टों को अच्छा बताया है। स्वजनों द्वारा मिलने वाले ताने व्यक्ति सहन नहीं कर पाता। इसलिए वे कहते हैं कि धनी व्यक्ति जंगल में भयंकर जानवरों के बीच रहे ले लेकिन अपमान सहने के लिए अपने बंधु बांधव के मध्य ना रहे।
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् ।
तस्मात् मूलं यत्नो रक्षणीयम्छि न्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ।।13।।
The brahmana is like tree; his prayers are the roots, his chanting of the Vedas are the branches, and his religious act are the leaves. Consequently effort should be made to preserve his roots for if the roots are destroyed there can be no branches or leaves.
भावार्थ- ब्राह्मण एक वृक्ष के समान है. उसकी प्रार्थना ही उसका मूल है. वह जो वेदों का गान करता है वही उसकी शाखाए है. वह जो पुण्य कर्म करता है वही उसके पत्ते है. इसीलिए उसने अपने मूल को बचाना चाहिए. यदि मूल नष्ट हो जाता है तो शाखाये भी ना रहेगी और पत्ते भी.
व्याख्या- उपरोक्त श्लोक में जिसे ब्राह्मण कहकर संबोधित किया है उसका आशय सद्गुणी विद्वानों एवं श्रेष्ठ पुरुषों से है। संध्या, उपासना ,वेदादि का वर्णन उसके गुणों की ओर संकेत करते हैं। चाणक्य कहते हैं कि विद्वानों की, गुणियों की सदा रक्षा करनी चाहिए। श्रेष्ठ आचरण वाले ही ब्राह्मण हैं जिससे समाज को लाभ प्राप्त होता है। उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण कुल से जन्म लेने वाला ही ब्राह्मण नहीं है सात्विक एवं श्रेष्ठ कर्म करने वाला ही ब्राह्मण है और ऐसे लोगों की समाज के हित में सदा रक्षा करनी चाहिए।
माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दनः ।
बान्धवा विष्णु भक्ताश्च स्वदेशे भुवनत्रयम् ।।14।।
My mother is Kamala devi (Lakshmi), my father is Lord Janardana (Vishnu), my kinsmen are the Vishnu-bhaktas (Vaisnavas) and, my homeland is all the three worlds
भावार्थ- लक्ष्मी मेरी माता है. विष्णु मेरे पिता है. वैष्णव जन मेरे सगे सम्बन्धी है. तीनो लोक मेरा देश है.
व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक में आचार्य ने बड़ी ही सुंदर बात कही है। वे कहते हैं कि जगत जननी मां लक्ष्मी को जिसने अपनी मां मान लिया है और जगत पालक भगवान विष्णु को पिता तथा विष्णु भक्तों को अपना भाई बंधु मान लिया है उसके लिए तो फिर कोई पराया रहा ही नहीं उसके लिए तो तीनो लोक ही उसका अपना घर है।
एकवृक्षे समारूढा नानावर्णा बिहंगमाः ।
प्रभाते दिक्षु दशसु का तत्र परिवेदना ? ।।15।।
(Through the night) a great many kinds of birds perch(Sit and rest) on a tree but in the morning they fly in all the ten directions. Why should we lament (Expression of sorrow) for that? (Similarly, we should not grieve when we must inevitably part company from our dear ones).
भावार्थ- रात्रि के समय कितने ही प्रकार के पंछी वृक्ष पर विश्राम करते है. भोर होते ही सब पंछी दसो दिशाओ में उड़ जाते है. हम क्यों भला दुःख करे यदि हमारे अपने हमें छोड़कर चले गए.
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि रात्रि होने पर एक ही पेड़ पर नाना प्रकार के पक्षी आकर बैठते हैं और प्रभात होने पर भोजन की तलाश में दसों दिशाओं में उड़ जाते हैं। इसमें सुख शोक कैसा? आचार्य इस श्लोक में बता रहे हैं कि यह संसार एक वृक्ष के समान है और हम सब पक्षियों की भांति रात्रि विश्राम के लिए यहां आकर ठहरते हैं और समय आने पर उड़ जाते हैं अर्थात इस संसार को त्याग कर चले जाते हैं इसमें दुख कैसा?
बुध्दिर्यस्य बलं तस्य निर्बुध्दैश्च कुतो बलम् ।
वने हस्ती मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः ।।16।।
He who possesses intelligence is strong; how can the man that is unintelligent be powerful? The elephant of the forest having lost his senses by intoxication was tricked into a lake by a small rabbit. - Chanakya
भावार्थ- जिसके पास में विद्या है वह शक्तिशाली है. निर्बुद्ध पुरुष के पास क्या शक्ति हो सकती है? एक छोटा खरगोश भी चतुराई से मदमस्त हाथी को तालाब में गिरा देता है.
व्याख्या- बुद्धिमान ही बल का सही उपयोग कर सकता है किंतु बुद्धिहीन का बल भी उसके काम नहीं आता। बल हीन प्राणी के पास यदि बुद्धि है तो वह बलवान से बलवान को मार गिराता है किंतु वह बलवान किस काम का जिसके पास बुद्धि नहीं है। बुद्धि के अभाव में वह बल का भी उचित प्रयोग नहीं कर पाता।
का चिन्ता मम जीवने यदि हरिविश्वन्भरो गीयते ।
नो चेदर्भकजीवनाय जननीस्तन्यं कथं निःसरेत् ।।
इत्यालोच्य मुहुर्मुहुर्यदुपते लक्ष्मीपते केवलम् ।
त्वत्पदाम्बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते ।।17।।
Why should I be concerned for my maintenance while praising the Lord Vishnu by his grace milk flows from a mother's breast for a child's nourishment, in the same way, O Lord Vishnu, all my time is spent in serving Your lotus feet.
भावार्थ- हे विश्वम्भर तू सबका पालन करता है. मै मेरे गुजारे की क्यों चिंता करू जब मेरा मन तेरी महिमा गाने में लगा हुआ है. आपके अनुग्रह के बिना एक माता की छाती से दूध नहीं बह सकता और शिशु का पालन नहीं हो सकता. मै हरदम यही सोचता हुआ, हे यदु वंशियो के प्रभु, हे लक्ष्मी पति, मेरा पूरा समय आपकी ही चरण सेवा में खर्च करता हू.
व्याख्या- भगवान का एक नाम विश्वम्भर भी है अर्थात विश्व का भरण पोषण करने वाले। इसका प्रमाण है कि शिशु के माता के गर्भ में आने के साथ ही वे माता के स्तनों में दूध का समावेश कर देते हैं यही उनकी विशेष कृपा है चाणक्य कहते हैं कि हे प्रभु! यही देख कर मैं अपना जीवन आपके चरण कमलों में सेवा में व्यतीत करता हूं। इस श्लोक के द्वारा चाणक्य स्पष्ट संकेत करते हैं कि व्यक्ति को ईश्वर पर अटूट विश्वास और श्रद्धा रखनी चाहिए।
गीर्वाणवाणीषु विशिष्टबुध्दि-स्तथापि भाषान्तरलालुपोऽहम् ।
यथा सुधायाममरिषु सत्यांस्वर्गड्गनानामधरासवे रुचिः ।।18।।
Although I have special qualifications in Debawani, yet there is a greed of language. Like the excellent item of Amrit in heaven, the deities are still interested to pay the grandfather of God.
भावार्थ- यद्यपि मैं देववाणी में विशेष योग्यता रखता हूँ, फिर भी भाषान्तर का लोभ है ही। जैसे स्वर्ग में अमृत जैसी उत्तम वस्तु विद्यमान है फिर भी देवताओं को देवांगनाओं के अधरामृत पान करने की रुचि रहती ही है।
व्याख्या- चाणक्य का कथन है कि यद्यपि में संस्कृत भाषा में विशेष बुद्धि रखता हूं तथा दूसरी भाषाओं का भी मुझे लोभ है जैसे अमृत का पान करने के लिए भी देवताओं की इच्छा स्वर्ग की अप्सरा के अधर रस का पान करने में रहती है।
अनाद्दशगुणं पिस्टं पिस्टाद्दशगुणं पयः ।
पयसोऽष्टगुणं मांसं मांसाद्दशगुणं घृतम् ।।19।।
Due to the grace of the grain, there is a strong force in Pisan. Dashan is stronger than Pisan in milk. The eighth force remains the milk from the meat, there is also a double force in ghee.
भावार्थ- खडे अन्न की अपेक्षा दसगुना बल रहता है पिसान में। पिसान से दसगुना बल रहता है दूध में। दूध से अठगुना बल रहता है मांस से भी दसगुना बल है घी में।
व्याख्या- गेहूं से दस गुना सकती आटे में, आटे आठ से दस गुना सकती दूध में, दूध से दस गुना शक्ति मास में और मांस से दस गुना शक्ति तथा पुष्टि घी होती है। इस श्लोक में घी को मांस से उत्तम बताया गया है। शक्ति एवं उसके लिए मांस भक्षण करने वालों को चाहिए कि वे घी का सेवन करें।
शाकेन रोगा वर्ध्दते पयसो वर्ध्दते तनुः ।
घृतेन वर्ध्दते वीर्यं मांसान्मासं प्रवर्ध्दते ।।20।।
Disease from the body, the body of milk, ghee from semen, and meat is increased.
भावार्थ- शाक से रोग, दूध से शरीर, घी से वीर्य और मांस से मांस की वृध्दि होती है।
व्याख्या- मांस खाने वालों को बल बुद्धि एवं तेज की बुद्धि के लिए मांस का नहीं घी दूध सेवन करना चाहिए। साग सब्जी से रोग बढ़ने का कारण यह है कि व्यक्ति साग सब्जी के गुण, अवगुण पर ध्यान नहीं देते और न उन्हें अच्छी प्रकार साफ करके पकाते हैं। इसलिए उसमें कीटाणु रह जाते हैं। उन्हें स्वच्छ पानी में धोकर ही पकाना चाहिए जिससे उनका हानिकारक प्रभाव नष्ट हो जाए।
अति हर चीज की बुरी होती है कुछ सब्जियां वादी होती हैं कुछ शर्करा उत्पन्न कर देती हैं कुछ शुष्क एवं वरिष्ठ होती हैं अतः व्यक्ति को भोजन में तालमेल बैठाना चाहिए एवं बल वीर्य वर्धक घी दूध का सेवन अधिक मात्रा में करना चाहिए।