चाणक्य नीति
मुक्तिमिच्छासि चेत्तात ! विषयान् विषवत्त्यज ।
क्षमाऽऽर्जवं दया शौचं सत्यं पीयूषवत्पिब ।।1।।
My dear child, if you desire to be free from the cycle of birth and death, then abandon the objects of sense gratification as poison. Drink instead the nectar of forbearance, upright conduct, mercy, cleanliness and truth.
भावार्थ- तात, यदि तुम जन्म मरण के चक्र से मुक्त होना चाहते हो तो जिन विषयो के पीछे तुम इन्द्रियों की संतुष्टि के लिए भागते फिरते हो उन्हें ऐसे त्याग दो जैसे तुम विष को त्याग देते हो । इन सब को छोड़कर हे तात तितिक्षा, ईमानदारी का आचरण, दया, शुचिता और सत्य इसका अमृत पियो।
व्याख्या- हे भाई! यदि तुम्हें मुक्ति की अभिलाषा है तो विषयों को विष के समान जानकर त्याग दो और क्षमा,आर्जव, दया, पवित्रता और सत्य को अमृत के समान सेवन करो। तात्पर्य है कि व्यक्ति को विषयों के प्रति आसक्ति न रखकर क्षमा, त्याग, सहिष्णुता, दयालुता, पवित्रता, सहनशीलता, शुद्धि एवं सत्य को अपनाना चाहिए।
परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः ।
त एव विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत् ।।2।।
Those base men who speak of the secret faults of others destroy themselves like serpents who stray onto anthills.
भावार्थ- वो कमीने लोग जो दूसरो की गुप्त खामियों को उजागर करते हुए फिरते है, उसी तरह नष्ट हो जाते है जिस तरह कोई साँप चीटियों के टीलों में जा कर मर जाता है।
व्याख्या- यह श्लोक उन लोगों के लिए है जो मित्र होने का दावा करते हैं और मित्र के रहस्य जानकर उनके मर्म पर चोट करते हैं तथा आत्मा को घायल करने वाली वाणी बोलते हैं। चाणक्य कहते हैं कि ऐसे लोग सर्प की भांति नष्ट हो जाते हैं जैसे बांबी में फस सर्प दम घुटने से मर जाता है।
गन्धः सुवर्णे फलभिक्षुदंडे-नाऽकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य ।
विद्वान् धनी भूपतिदीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपि न बुध्दिदोऽभूत् ।।3।।
Perhaps nobody has advised Lord Brahma, the creator, to impart perfume to gold; fruit to the sugarcane; flowers to the sandalwood tree; wealth to the learned; and long life to the king.
भावार्थ- शायद किसीने ब्रह्माजी, जो इस सृष्टि के निर्माता है, को यह सलाह नहीं दी की वह: सुवर्ण को सुगंध प्रदान करे, गन्ने के झाड को फल प्रदान करे, चन्दन के वृक्ष को फूल प्रदान करे, विद्वान को धन प्रदान करे और राजा को लम्बी आयु प्रदान करे।
व्याख्या- ब्रह्मा ने स्वर्ण में सुगंध नहीं डाली, ईख में फल नहीं लगाए, चंदन के वृक्ष पर पुष्प नहीं लगाए। विद्वान को धनवान और राजा को दीर्घ जीवी नहीं बनाया इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व काल में कोई भी ईश्वर को बुद्धि देने वाला नहीं था। उपरोक्त विचार आचार्य चाणक्य के निजी विचार हैं क्योंकि विधि के विधान को कोई बदल नहीं सकता और विधाता ने जो कुछ भी किया है बहुत सोच समझ के किया है उसे चुनौती नहीं दी जा सकती ऐसा मानकर व्याख्या कार चाणक्य के उपरोक्त विचारों से सहमत नहीं है।
सर्वौषधीनाममृतं प्रधानम् सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम् ।
सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गात्रेषु शिरः प्रधानम्।।4।।
Nectar (amrita) is the best among medicines; eating good food is the best of all types of material happiness; the eye is the chief among all organs; and the head occupies the chief position among all parts of the body.
भावार्थ- अमृत सबसे बढ़िया औषधि है। इन्द्रिय सुख में अच्छा भोजन सर्वश्रेष्ठ सुख है। नेत्र सभी इन्द्रियों में श्रेष्ठ है। मस्तक शरीर के सभी भागो मे श्रेष्ठ है।
व्याख्या- सभी औषधियों में अमृत को प्रधान औषधि माना गया है वरिष्ठ आचार्य चाणक्य कहते हैं कि भोजन से बड़ा सुख कोई नहीं है। सत्य है व्यक्ति के पास हीरे जवाहरात, सोने चांदी ढेर लगे हो, सोने चांदी का अकूत भंडार हो और भोजन ना हो तो उसे कैसा सुख उपरोक्त वस्तुओं को व्यक्ति खा नहीं सकता कॉलेस्टॉप वस्तुतः पेट भरा हो और भौतिक सुख भी अच्छे लगते हैं। जूती भूख से पीड़ित हो और आर्थिक सुख भी उसके लिए व्यर्थ हैं।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि प्राणी की समस्त इंद्रियों में नेत्र ही सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि नेत्रों के द्वारा ही मनुष्य व्यक्ति इस संसार को देख कर आनंदित होता है। दृष्टि ना हो तो चारों ओर अंधकार के सिवा और कुछ दिखाई नहीं देगा। शरीर के समस्त अंगों में सिर का सर्वाधिक महत्व है क्योंकि सिर में मस्तिक और मस्तिष्क की चिंतन का कार्य करता है। ज्ञात हो कि चिंतन बिना जीवन में कुछ नहीं है जो चिंतन नहीं करते वे मूर्ख होते हैं।
दुतो न सञ्चरति खे न चलेच्च वार्ता ।
पुर्व न जल्पितमिदं न च सड्गमोऽस्ति ।
व्योम्नि स्थितं रविशाशग्रहणं प्रशस्तं
जानाति यो द्विजवरः सकथं न विद्वान् ।।5।।
The Brahmin who predicts the eclipse of the sun and moon which occur in the sky must be considered a man of great learning.
भावार्थ- कोई संदेशवाहक आकाश में जा नहीं सकता और आकाश से कोई खबर आ नहीं सकती, वहाँ रहने वाले लोगो की आवाज सुनाई नहीं देती और उनके साथ कोई संपर्क नहीं हो सकता इसीलिए वह ब्राह्मण जो सूर्य और चन्द्र ग्रहण की भविष्य वाणी करता है, उसे विद्वान मानना चाहिए।
व्याख्या- पृथ्वी से अंतरिक्ष में कभी कोई दूत नहीं गया और ना ही अंतरिक्ष में कोई ऐसा है धरती पर बैठकर जिस से बातचीत की जाए। फिर भी विद्वान लोगों ने गणना करके यह जान लिया कि सूर्य और चंद्र ग्रहण से ग्रसित होते हैं और भविष्य में फलां फलां तिथि को भी गुहार से ग्रसित होंगे ऐसे खगोल शास्त्रियों को भला विद्वान क्यों ना माना जाए? नि: संदेह वे विद्वान हैं।
विद्यार्थी सेवकः पान्थः क्षुधार्तो भयकातरः ।
भाण्डारी प्रतिहारी च सप्त सुप्तान् प्रबोधयेत् ।।6।।
The student, the servant, the traveller, the hungry person, the frightened man, the treasury guard, and the steward: these seven ought to be awakened if they fall asleep.
भावार्थ- इन सातो को जगा दे यदि ये सो जाए: विद्यार्थी, सेवक, पथिक, भूखा आदमी, डरा हुआ आदमी, खजाने का रक्षक और खजांची.
व्याख्या- विद्यार्थी सोया रहेगा तो विद्या अध्ययन में पिछड़ जाएगा, सेवक सोया रहेगा तो सेवा धर्म का पालन नहीं कर सकेगा। राहगीर सोया रहेगा तो ठीक समय पर अपने स्थान पर नहीं पहुंच सकेगा अथवा कोई लुटेरा उसे लूट लेगा। भूख से पीड़ित व्यक्ति पहले तो सो नहीं पाएगा यदि मूर्छित होकर गिर भी जाए तो उसे जगा कर भोजन कराना चाहिए यही भूखे को जगाना है।
ऐसे व्यक्ति आराम से सो नहीं सकेगा नींद में भी उसे दु:स्वप्न ही आते रहेंगे। यदि ऐसा है तो उसे भी सांत्वना देकर उसका भय दूर करना चाहिए। किसी भयग्रस्त को भय से मुक्त करना ही उसे जगाना है। भंडारी सोता रहा तो भंडारग्रह में चोरी हो सकती है और द्वारपाल सोता रहा तो द्वार की रक्षा कौन करेगा कोई भी व्यक्ति अंदर प्रवेश कर सकता है। अतः उपर्युक्त साथ व्यक्ति सोए हुए हो तो उन्हें जगह देना ही उचित है। यही उत्तम नागरिक का कर्तव्य है।
अहिं नृपं च शार्दुलं बरटि बालकं तथा ।
परश्वानं च मूर्ख च सप्त सुप्तान्न बोधयेत् ।।7।।
The serpent, the king, the tiger, the stinging wasp, the small child, the dog owned by other people, and the fool: these seven ought not to be awakened from sleep.
भावार्थ- इन सातो को नींद से नहीं जगाना चाहिए: साँप, राजा, बाघ, डंख करने वाला कीड़ा, छोटा बच्चा, दुसरो का कुत्ता और मुर्ख ।
व्याख्या- पूर्ब के श्लोक में जहां चाणक्य ने सात सोए हुओं को जगाने की बात कही है वही भी इस श्लोक में सात को ना जगाने की बात कहते हैं। इन सातों को जगाने से स्वय की हानि होगी। सर्प डस लेगा, राजा दंड प्रदान करेगा, बाघ चीता हमला करके मार डालेगा, बालक की निंद्रा खुलने से वह बहुत रोएगा और चिल्लाएगा, दूसरे के कुत्ते को जगाने से वह क्रोधित होकर काट लेगा और वह व्यर्थ का वाद विवाद करेगा। ये सात यदि सोते हो तो इन्हें कभी जगाने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
अर्थाधीताश्चयै र्वेदास्तथा शूद्रान्न भोजिनः ।
ते द्विजाः किं करिष्यन्ति निर्विषा इव पन्नगाः ।।8।।
Of those who have studied the Vedas for material rewards, and those who accept foodstuffs offered by shudras, what potency have they? They are just like serpents without fangs.
भावार्थ- जिन्होंने वेदों का अध्ययन पैसा कमाने के लिए किया और जो नीच काम करने वाले लोगो का दिया हुआ अन्न खाते है उनके पास कौनसी शक्ति हो सकती है, वो ऐसे भुजंगो के समान है जो दंश नहीं कर सकते।
व्याख्या- यह श्लोक विशेषतौर पर ब्राह्मणों की योग्यता-अयोग्यता की ओर संकेत करता है। चाणक्य कहते हैं कि आजीविका चलाने के लिए वेदों को बेचने वाले अर्थात जगह-जगह सभा करके धन मिल मिलेगा ऐसी भावना मन में रखकर जो ब्राह्मण वेद बाचतें हैं तथा जो शूद्रों का दिया पूजन भी ग्रहण कर लेते हैं वे भला किसी का क्या भला कर सकते हैं। उनका ब्रह्म तेज तो समाप्त हो जाता है और उनकी गतिविधि सर्प जैसी होती है।
ब्राह्मण का कार्य है कि वह अपने ज्ञान से दूसरों का निस्वार्थ होकर मार्गदर्शन करें और इसके बदले में उसके यजमान क्षत्रिय वैश्य आदि जो कुछ भी उसे दे उसी से संतुष्ट रहे। लेकिन जो ब्राह्मण मन में जनकल्याण की भावना रखकर धन के लिए वेद शास्त्रों का पठन वाचन करते हैं वे भला किसी का क्या उद्धार करेंगे। ऐसे लोभी ब्राह्मण तो शुद्रो द्वारा दिया गया भोजन भी खा लेते हैं। उनका ब्रह्म तेज समाप्त हो जाता है। वे न किसी का अच्छा कर सकते और ना ही बुरा।
यस्मिन रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनागमः ।
निग्रहाऽनुग्रहोनास्ति स रुष्टः किं करिष्यति ।।9।।
He who neither rouses fear by his anger, nor confers a favour when he is pleased can neither control nor protect. What can he do?
भावार्थ- जिसके डाटने से सामने वाले के मन में डर नहीं पैदा होता और प्रसन्न होने के बाद जो सामने वाले को कुछ देता नहीं है, वो ना किसी की रक्षा कर सकता है ना किसी को नियंत्रित कर सकता है।
व्याख्या- जिस व्यक्ति के प्रसन्न होने से कोई लाभ नहीं रुष्ट होने से कोई नुकसान नहीं जो न दंड देने की सामर्थ्य रखता है और ना कृपा की उसकी कौन परवाह करता है और वह व्यक्ति किसी से अप्रसन्न होकर भला क्या कर लेगा।
निविषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा ।
विषमस्तु न चाप्यस्तु घटाटोप भयंकरः ।।10।।
The serpent may, without being poisonous, raise high its hood, but the show of terror is enough to frighten people -- whether he be venomous or not.
भावार्थ- यदि नाग अपना फन खड़ा करे तो भले ही वह जहरीला ना हो तो भी उसका यह करना सामने वाले के मन में डर पैदा करने को पर्याप्त है। यहाँ यह बात कोई माइना नहीं रखती की वह जहरीला है की नहीं ।
व्याख्या- प्रस्तुति श्लोक में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति को समाज एवं बंधु बांधव में अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए थोड़ा बहुत आडंबर भी करना चाहिए। जिस प्रकार विषहीन सर्प अपना हाथ फैला कर लोगों को भयभीत करता रहता है। यदि लोगों को यह ज्ञात हो जाए कि इस सर्प में विष नहीं है तो उसे लोग पत्थर मारेंगे और अत्याचार करेंगे। अतः सर्प अपना प्रभाव जमाने के लिए फुंकारते रहना चाहिए।
प्रारर्द्यूतप्रसंगेन मध्यान्हे स्त्रीप्रसंगतः ।
रात्रौ चौरप्रसंगेन कालो गच्छति धीमताम् ।।11।।
Wise men spend their mornings in discussing gambling, the afternoon discussing the activities of women, and the night hearing about the activities of theft.
भावार्थ- सुबह उठकर दिन भर जो दाव आप लगाने वाले है उसके बारे में सोचे. दोपहर को अपनी माँ को याद करे. रात को चोरो को ना भूले.
व्याख्या- मूर्ख लोग प्रातः काल होते ही जुआ खेलने में लिप्त हो जाते हैं। दोपहर को स्त्री सहवास, भोग विलास ,आमोद प्रमोद में और रात्रि काल में चोरी आदि दुष्कर्म में लग जाते हैं। किंतु विद्वान लोगों को चाहिए कि वे प्रातः काल ईश्वर भजन दिन का समय आजीविका कमाने तथा रात के समय प्रेम प्रसंग एवं आमोद प्रमोद में व्यतीत करें।
स्वहस्तग्रथिता माला स्वहस्ताद घृष्टचन्दनम् ।
स्वहस्तलिखितं शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ।।12।।
By preparing a garland for a Deity with one's own hand; by grinding sandal paste for the Lord with one's own hand; and by writing sacred texts with one's own hand -- one becomes blessed with opulence equal to that of Indra.
भावार्थ- आपको इन्द्र के समान वैभव प्राप्त होगा यदि आप: अपने भगवान के गले की माला अपने हाथो से बनाये, अपने भगवान के लिए चन्दन अपने हाथो से घिसे और अपने हाथो से पवित्र ग्रंथो को लिखे।
व्याख्या- जो व्यक्ति प्रेम एवं भक्ति पूर्वक श्रद्धा से अपने इष्ट को अपने हाथों से माला गूँथ कर अर्पण करता है अपने हाथों से चंदन घिसकर उसके मस्तक पर लगाता है और स्वर लिखित स्तुति का गायन करता है वह इंद्र की संपदा को भी अपने बस में करने में समर्थ हो जाता है।
इक्षुदण्डास्तिलाः शूद्रा कान्ताकाञ्चनमेदिनी।
चन्दनं दधि ताम्बूलं मर्दनं गुणवधर्मनम्।।13।।
Acharya Chanakya, while propounding the quality of being pressed here, says that their qualities increase only by their use of cane, sesame, shudra, wife, gold, earth, sandalwood, curd and tambul (paan).
भावार्थ- आचार्य चाणक्य यहां दबाए जाने की गणवत्ता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि ईंख, तिल, शूद्र, पत्नी, सोना, पृथ्वी, चन्दन, दही तथा ताम्बूल (पान) इनके प्रयोग से ही इनके गुण बढ़ते हैं।
व्याख्या- यहां मर्दन शब्द अनेक अर्थों में लिया गया है। ईख और तिल में पेरने या पेलने के अर्थ में, मूर्ख में ताड़ना के अर्थ में, नारी के मर्दन के अर्थ में, स्वर्ण में तपाने के अर्थ में, पृथ्वी जोतने के अर्थ में, चंदन में घर्षण के अर्थ में, दही में मंथन के अर्थ में और पान में चरण के अर्थ में।
प्रत्येक व्यक्ति के साथ जो अर्थ दिया गया है वह जितना अधिक किया जाए उतना ही अधिक फलप्रद होता है। जैसी ईख और तिल जितनी बार भी कोल्हू में खेला जाएगा उतना ही उससे अधिक रस और तेल निकलेगा।शुद्रजन या गवार को जितनी ताडन दी जाएगी उतनी ही अच्छी प्रकार से वह कार्य करेगा। सहवाग के समय स्त्री के कुंचों का जितना अधिक मर्दन किया जाएगा उतना ही अधिक आनंद प्राप्त होगा।
स्वर्ण जितना अधिक तपाया जाएगा उतना ही उसमें निखार आएगा उसकी सुंदरता में वृद्धि होगी। पृथ्वी को जितनी बार जोता जायेगा उतनी ही अधिक फसल पैदा होगी। पान को चबाने से उसके गुण और स्वाद में वृद्धि होती है।
दरिद्रता धीरतया विराजते, कुवस्त्रता स्वच्छतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते।।14।।
Poverty is set off by fortitude; shabby garments by keeping them clean; bad food by warming it; and ugliness by good behaviour
भावार्थ- गरीबी पर धैर्य से मात करे, पुराने वस्त्रो को स्वच्छ रखे, बासी अन्न को गरम करे और अपनी कुरूपता पर अपने अच्छे व्यवहार से मात करे ।
व्याख्या- निर्धन होने पर भी यदि व्यक्ति में धैर्य है तो उसकी वह निर्धनता पीड़ादायक नहीं होगी। व्यक्ति में धैर्य और संतोष होना चाहिए। वस्त्र भले ही अधिक कीमती ना हो किंतु यदि धुले हुए एवं स्वच्छ स्त्री किए हुए हो तो भी वह सुंदर प्रतीत होते हैं बाजरा मक्का आदि मोटे अन्न भी गरम गरम खाए जाएँ तो स्वादिष्ट लगते हैं बाजरे की खिचड़ी और रोटी तथा मक्के की रोटी गरम गरम तो व्यक्ति खा सकता है किंतु ठंडी होने पर भी उतनी स्वादिष्ट नहीं लगती। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति कुरूप है और उसमें शीलता है तो उसकी वह कुरूपता भी बुरी नहीं लगती।