ककोड़ा का मेला किस जगह लगता है?
यह मेला ग्राम कादरगंज पुख्ता गंगा घाट तट पर लगता है, इस मेले की झंडी ककोड़ देवी मन्दिर से पुज कर आती है यह इस वजह से काफी प्रसिद्ध है ,
इसे मिनी कुम्भ कादरगंज मेला और ककोड़ मेला भी बोला जाता है ब्लॉक गंजडुंडवारा जिला कासगंज ग्राम कादरगंज पुख्ता गंगा घाट पर लगाया जाता है यह मेला लगभग 6 से 7 दिन के बीच में लगता है
श्रद्धालु मेले में पहुंचकर अपनी ध्वजा लगाकर जगह सुनिश्चित कर लेतें हैं। मेला प्रशासन के द्वारा मेले की स्वच्छता सफाई के लिए पहले से ही योजना बना लेतें है।
जगह-जगह कूड़ेदान, शौचालयों, मूत्रालयों को बनाया जातें हैं । गंगा तट पर श्रद्धालुओं की सुरक्षा को देखते हुए मल्लाहों के टेंट लगा दिए जातें हैं।
मेला की शुरुरात किसने की?
ककोड़ा मेला : रूहेला राजाओं ने रखी थी कटरी में मेला ककोड़ा की नींव
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ककोड़ा मेला काफी विख्यात है और रूहेलखंड में रूहेला के राजाओं की वजह से आज तक विख्यात है।
यहां रूहेलाओं के राजाओं के जश्न से ही मेला ककोड़ा का लगना शुरू हुआ था, जो करीब 15 दिन तक चलता है
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ककोड़ा मेला काफी विख्यात है और रूहेलखंड में रूहेला के राजाओं की वजह से आज तक विख्यात है।
यहां रूहेलाओं के राजाओं के जश्न से ही मेला ककोड़ा का लगना शुरू हुआ था, जो करीब 15 दिन तक चलकर अपने इतिहास और रीतिरिवाजों को संजोता है।
तकरीबन पांच सौ पुराना इतिहास संजोए यह ऐतिहासिक वार्षिक मेला अब जन-जन की धार्मिक भावनाओं का केन्द्र बिंदु बन चुका है।
यही वजह है कि कल यहां मुख्य स्नान पूर्णिमा पर्व पर होगा और यहां कल्पवास करने को तमाम साधु-संत समाज और जन समुदाय एकत्रित हुए हैं।
रूहेलखंड के नाम से मशहूर हुए इस मेला आयजोन का उद्देश्य और इसकी शुरूआत होने के कई मत प्रचिलित रहे हैं। जो जानकारी आधिकारिक जुवानों पर रहती आई है।
उसके मुताबिक इस ककोड़ा मेला की नींव ककोड़ नामक घास से पड़ी है। बताया जाता है कि तकरीबन पांच सौ साल पहले कादरचौक क्षेत्र का यह इलाका अधिकांशत: भूड़ (रेतीला) था।
जिसमें अधिकतर कुदरती ककोड़ घास की बहुतायत रहती थी। यह भी सर्ववादित है कि भारतीय संस्कृति में इलाज बतौर वनस्पतियों का भरपूर उपयोग रहता था।
अत: उस दौर के वनस्पति ज्ञान (पेड़-पौधों) के जानकार इस ककोड़ घास के रस से शरीर पर हुए दाद, खाज व दाद को ठीक कर लिया करते थे।
उन दिनों गंगा ककोड़ देवी मंदिर के निकट से बहती थी। वहीं पर उनकी मुलाकात ध्यान मुनि नाम के एक संत से हुई थी। मुनि के कहने पर नवाब ने गंगा में स्नान कर ककोड़ देवी मंदिर में नियमित दर्शन करना शुरू किया।
उन्होंने अपने कोढ़ रूपी रोग से मुक्ति गंगा स्नान तथा इसी ककोड़ घास के जरिए पायी थी। वर्तमान में स्थापित ककोड़ देवी मंदिर पूर्व में ब्रह्म देव स्थल रहा है
ऐसा बताया जाता है। अत: रोग से छुटकारा मिलने के बाद नवाब अब्दुल्ला खां ने इसी देवस्थल पर पहुंचकर इसके समीप वह रही गंगाधार में स्नान करके प्रसाद बांटा था। कोढ़ की समाप्ति की खुशी में नवाब साहब के परिचित रूहेला राजाओं ने बरेली-आंवला क्षेत्रों से ककोड़ा पंहुचकर जश्न मनाया था। बरेली-आंवला क्षेत्र रूहेलाओं की राजधानी रही है
इसका प्रमाण इस इलाका का नाम रूहेलखंड होना है। बरहाल इसी ककोड़ घास और देवी स्थल ककोड़ देवी की तर्ज पर ककोड़ा गांव का नामकरण हुआ था। मेला ककोड़ा आयोजन की परंपरा अभी तक विधमान है। इस वार्षिक मेला में प्रतिवर्ष हजारों-लाखों श्रद्धालु गंगा में श्रद्धा भरी डुबकी लगाकर माता ककोड़ देवी का पूजन करते आ रहे हैं।
गंगा और ककोड़ देवी की महिमा से प्रभावित होकर उन्होंने मेला लगवाना शुरू कर दिया। इस मेले में जिले के अलावा बरेली, पीलीभीत, शाहजहांपुर, सम्भल और कासगंज से भी बड़ी संख्या में लोग आते हैं।
मेले में बनेगी कोतवाली, सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम मेले में श्रद्धालुओं की सुरक्षा और सुव्यवस्था के लिए पुलिस फोर्स तैनात 24 घंटे रहता है।
सबसे पहले मेला कोतवाली बनाने का काम शुरू कर दिया जाता है। मेले में चोर-उचक्कों उठाईगीरों पर पुलिस के जवानों की पैनी नजर रहती है।
मेले के मुख्य चौराहों और मुख्य मार्गों पर पुलिस फोर्स तैनात रहेगा। पुरे मेला में CCTV कैमरा लगाये जातें है
गत वर्षों से हर बार अच्छी व्यवस्था किए जाने के प्रयास किए जाता हैं। गंगा तट पर मेला लगवाने की तैयारी जोर-शोर पर चलती है।
देवोत्थान एकादशी तक व्यवस्था पूरी करने के प्रयास किए जाता हैं। सबसे पहले फॉर लाइन मुख्य मार्ग तैयार किया जाता है, मार्ग तैयार होने के बाद टेंट लगाने का काम शुरू हो जाता है। फिर स्नान घाट तैयार करने की भी तैयारी की जा जाती है। हर साल की सप्तमी को ककोड़ देवी मंदिर से झंडी का पूजन होके मेले में पहुंचती है।
कुर्मी समाज का मेला लगभग गंगा तट पर पहुंचता है। खेल-तमाशों के साथ, दुकानें, सर्कस, झूला आदि भी पहुंचते हैं। खैराती बाजार, हलवाई बाजार और मीना बाजार भी सजकर लगभग तैयार होता हैं।
मेला स्थल पर लाइटिंग और सजावट के साथ वीआईपी टेंट लगते है। गंगा तट पर अब दिन भर रौनक रहती है। रात के वक्त गंगा तट सजावट से जगमगाता है।
मेला स्थल पर सिरकी के पाल से लोग अपने टेंट के चारों तरफ दिवार बनाते हैं। तथा कुछ लोग खजूर की चटाई से काम चलतें है। सभी मार्गों पर पर्याप्त प्रकाश व्यवस्था की जाती है।
मेला में एनाउंस के लिए कई ई-रिक्शा भी लगाए जातें हैं। इसके अलावा गंगा घाटों पर लोगों को चेतावनी देने के लिए भी चौबीस घंटे एनाउंस की व्यवस्था की जाती है।
जगह का चुनाव
मेला की जगह की देख रेख दीपावली के पहले से होने लगती हैडीएम, एसएसपी तथा अन्य अधिकारी सबसे पहले मेला स्थल का निरीक्षण करते हैं
चौबीस घंटे गंगा घाटों की निगरानी की जाए। गहराई वाले इलाकों में नावों के जरिए चौकसी बरती जाए।
मेला कोतवाली, फायर स्टेशन का निरीक्षण कर यहां किए गए सुरक्षा बंदोबस्त किया जात है। गंगा घाटों पर मजबूत बेरिकेडिंग कराने की व्यवस्था की जाती है।
मेला ककोड़ा में खेल मैदान तैयार, प्रतियोगिताओं पर स्थिति साफ सफाई की जाती है।
मिनी कुंभ मेला ककोड़ा में विभिन्न प्रतियोगिताओं के आयोजन के लिए खेल मैदान बनकर तैयार किया जाता है।
यहां बता दें कि मेला ककोड़ा में कबड्डी, खो-खो, घुड़दौड़, हाथी दौड़ आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है। घुड़दौड़ और हाथी दौड़ प्रतियोगिता कई वर्ष से नहीं हो रही है।
सड़क निर्माण
बदायूँ से आपको स्पेशल मेला के लिए रोडवेज बसें चलतीं है आप मेला ककोडा के नाम से सीधा टिकट ले सकते हैं बदायूँ से आपको प्राइवेट बस, टेम्पो, इ रिक्सा, तथा अन्य वाहन मिल जातें हैं
रोड से आउट साइड रोड
मेला ककोडा के लिए स्पेशल फॉर लाइन की व्यवस्था की जाती है जो खेतों से होकर फुंस से बने बींडा डाल कर बनाई जाती है खेतों में खड़ा गन्ना, धान इत्यादि फसलों को किसानो से खाली कराया जाता है