चाणक्य नीति
अधमा धनमिइच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम् ।।1 ।।
भावार्थ- नीच वर्ग के लोग दौलत चाहते है, मध्यम वर्ग के दौलत और इज्जत, लेकिन उच्च वर्ग के लोग सम्मान चाहते है क्यों की सम्मान ही उच्च लोगो की असली दौलत है ।
व्याख्या- अधम व्यक्ति अर्थात जिसे सांसारिक भोग विलास के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता वासनाओं से लिप्त ऐसे व्यक्ति को आचार्य ने अधम की संज्ञा दी है और वे कहते हैं कि ऐसे लोगों को धन के अतिरिक्त और कुछ भी प्रिय नहीं होता। येन केन प्रकारेण वे धन की कामना करते हैं मान सम्मान मिले या ना मिले। तात्पर्य है कि कोई दुत्कार कर चार जूते मार ले और बदले में उन्हें धन दे दे तो वे खुशी-खुशी ऐसे धन को कबूल कर लेते हैं।
मध्यम कोटि के प्राणी जो थोड़ा बहुत आत्म तत्व को भी जानता है उसके लिए मान का भी बहुत महत्व है। वह चाहता है कि आजीविका के लिए धन तो मिले लेकिन सम्मान के साथ मिले। अपमानित होकर वे धन प्राप्त नहीं करते। उच्च कोटि के मनुष्य जिसमें आत्म सम्मान है और आत्म तत्व को जानते हैं उनके लिए धन अधिक महत्व ना होकर सम्मान अधिक महत्व पूर्ण है। उनका स्वभाव होता है कि धन मिले या ना मिले किंतु सम्मान मिले। वे सम्मान से ही संतुष्ट होते हैं और सम्मान ही उनके लिए धन के बराबर है।
इक्षुरापः पयो मूलं ताम्बूलं फलमौषधम् ।
भक्षयित्वाऽपिकर्तव्याःस्नानदानादिकाःक्रियाः ।।2।।
भावार्थ- ऊख, जल, दूध, पान, फल और औषधि इन वस्तुओं के भोजन करने पर भी स्नान दान आदि क्रिया कर सकते हैं ।
व्याख्या- चाणक्य ने उपरोक्त वस्तुओं के सेवन के उपरांत भी संध्या, पूजन, दान,तर्पण आदि नित्य कर्मों का निवेश किया है। यदि कोई रोगी है तृषा पीड़ित है अथवा प्यासा है या भूखा है तो वह औषधि, गन्ने का रस, फल कंद ,दूध आदि के सेवन के बाद भी नित्यकर्म कर सकता है।
दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते ।
यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी प्रजा ।।3।।
भावार्थ- दीपक अँधेरे का भक्षण करता है इसीलिए काला धुआं बनाता है । इसी प्रकार हम जिस प्रकार का अन्न खाते है , माने सात्विक , राजसिक , तामसिक उसी प्रकार के विचार उत्पन्न करते है ।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य ने बहुत ही सुंदर श्लोक कहा है दीपक कालिया अंधकार को खाता है और काजल उजाला देता है अर्थात जिस चीज को खाता है वैसी ही वस्तु उत्पन्न करता है। चाणक्य कहते हैं कि इसी प्रकार व्यक्ति जैसा अन्न खाता है उसके घर वैसी ही संतान उत्पन्न होती है। कहा भी गया है कि जैसा खावे अन्न वैसा पावे मन। अतः व्यक्ति को चाहिए कि शुद्ध और सात्विक भोजन करें ताकि उससे उत्पन्न वाली होने वाली संतान भी वैसी ही सात्विक धार्मिक एवं शीलवान उत्पन्न हो।
वित्तंदेहि गुणान्वितेष मतिमन्नाऽन्यत्रदेहि क्वचित् ।
प्राप्तं वारिनिधेर्जलं घनमुचां माधुर्ययुक्तं सदा
जीवाः स्थावरजङ्गमाश्च सकला संजीव्य भूमण्डलं ।
भूयः पश्यतदेवकोटिगुणितंगच्छस्वमम्भोनिधिम् ।।4 ।।
Wise man gives his wealth only to the worthy. The water of the sea received by the clouds is always sweet. The rainwater enlivens all living beings of the earth both movable and immovable and then returns to the ocean where its value is multiplied a million fold. भावार्थ- हे विद्वान् पुरुष ! अपनी संपत्ति केवल पात्र को ही दे और दूसरो को कभी ना दे।जो जल बादल को समुद्र देता है वह बड़ा मीठा होता है ।बादल वर्षा करके वह जल पृथ्वी के सभी चल अचल जीवो को देता है और फिर उसे समुद्र को लौटा देता है ।
व्याख्या- आचार्य ने इस श्लोक में दान की महिमा का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि गुणवान को दिया गया धन देने वाले के पास सहस्त्रगुना लौटकर आता है अतः दान करने वाले व्यक्तियों को संबोधित करते हुए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि बुद्धिमान व्यक्तियों सदैव गुणी व्यक्तियों को ही धन का दान दो कहीं अन्यत्र अर्थात गुणहीन व्यक्ति को दान कभी न करें इसी तथ्य को वे एक उदाहरण के द्वारा समझाते हैं समुद्र द्वारा गुणी मेघ को दिया गया खारा जल मेघ के मुंह में जाते ही मीठा बन जाता है।
मेघ जब जल की वर्षा करके भूमंडल के सभी जड़ चेतन प्राणियों को जीवन प्रदान करता है। वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है वर्षा के रूप में मेघ द्वारा बसाया गया जल समुद्र द्वारा मेघ को दिए गए जल की अपेक्षा करोड़ों गुना अधिक होता है और फिर उसी समुद्र में पहुंच जाता है। इस तथ्य को इस प्रकार समझें - समुद्र ने गुणी मेघ को जल का दान करके एक ओर अपने खारे जल को मीठा बना दिया दूसरी ओर जड़ चेतन को जीवन प्रदान करने का पुण्य प्राप्त किया तथा दिए गए
जल से अधिक प्रमाण में जल पुनः प्राप्त कर लिया। इस प्रकार स्पष्ट है कि गुणी को दिया गया दान ही सफल होता है। गुणवान को ही दान देना चाहिए गुणहीन को नहीं। दान देने से व्यक्ति को प्रसन्नता प्राप्त होती है
The wise who discern the essence of things have declared that the yavana (meat eater) is equal in baseness to a thousand candalas (the lowest class), and hence a yavana is the basest of men; indeed there is no one more base.
भावार्थ- विद्वान् लोग जो तत्त्व को जानने वाले है उन्होंने कहा है की मास खाने वाले चांडालो से हजार गुना नीच है। इसलिए ऐसे आदमी से नीच कोई नहीं।
चाण्डालानां सहस्त्रैश्च सूरिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
एको हि यवनः प्रोक्तो न नीचो यवनात्परः ।।5।।
भावार्थ- विद्वान् लोग जो तत्त्व को जानने वाले है उन्होंने कहा है की मास खाने वाले चांडालो से हजार गुना नीच है। इसलिए ऐसे आदमी से नीच कोई नहीं।
व्याख्या- जो धर्म के तत्व समझते हैं उनका कहना है कि एक यवन हजारों चांडालों के बराबर होता है। यवन से ज्यादा कोई नीच नहीं होता। यहां यह बता दे देना उचित है कि यवन का अर्थ किसी संप्रदाय से नहीं वरना अधर्म का आचरण करने वाले दुष्ट लोगों से है।
तैलाभ्यड्गे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्मणि ।
तावद् भवति चाण्डालो यावत्स्नानं न चाचरेत् ।।6।।
भावार्थ- शरीर पर मालिश करने के बाद, स्मशान में चिता का धुआ शरीर पर आने के बाद, सम्भोग करने के बाद, दाढ़ी बनाने के बाद जब तक आदमी नहा ना ले वह चांडाल रहता है।
व्याख्या- उपरोक्त भावार्थ की व्याख्या है तेल मालिश करने के बाद, शमशान से लौटने के पश्चात, सहवास के उपरांत और शेव कटिंग कराने के उपरांत जब तक व्यक्ति स्नान नहीं कर लेता वह चांडाल माना जाता है।
अजीर्णे भेषजं वारि जार्णे वारि बलप्रदम् ।
भोजने चाऽमृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम् ।।7।।
भावार्थ- जल अपच की दवा है। जल चैतन्य निर्माण करता है, यदि उसे भोजन पच जाने के बाद पीते है। पानी को भोजन के बाद तुरंत पीना विष पिने के समान है।
व्याख्या- अपच में पानी औषधि के समान है भोजन पचने पर पानी पीना शक्ति दायक है भोजन के बीच पानी का सेवन अमृत के समान लाभकारी है और भोजन के आखिर में पानी पीना विष के समान हानिकारक है। अजीर्ण में भोजन न करके केवल पानी पीना औषधि का काम करता है। भोजन पचाने पर अर्थात भोजन करने के 1 घंटे बाद पानी पीना शरीर को बल प्रदान करने वाला होता है।
भोजन के बीच में घुट घुट कर के पिया हुआ जल भोजन में रुचि उत्पन्न करने के कारण अमृत के समान गुणकारी माना गया है और भोजन करके तुरंत सेवन किया हुआ जल विष के समान माना गया है क्योंकि वह पाचक रसों को पतला करके तथा भोजन को बहुत शीघ्र महास्रोत में पहुंचा देता है।
Knowledge is lost without putting it into practice; a man is lost due to ignorance; an army is lost without a commander; and a woman is lost without a husband.
भावार्थ- यदि ज्ञान को उपयोग में ना लाया जाए तो वह खो जाता है ।आदमी यदि अज्ञानी है तो खो जाता है । सेनापति के बिना सेना खो जाती है ।पति के बिना पत्नी खो जाती है।
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नरः ।
हतं निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्टा ह्यभर्तृकाः ।।8।।
भावार्थ- यदि ज्ञान को उपयोग में ना लाया जाए तो वह खो जाता है ।आदमी यदि अज्ञानी है तो खो जाता है । सेनापति के बिना सेना खो जाती है ।पति के बिना पत्नी खो जाती है।
व्याख्या- व्यक्ति स्वयं को ज्ञानी माने या समझे तथा उसका आचरण ठीक ना हो तो ऐसे व्यक्ति का ज्ञान व्यर्थ है। पढ़ लिखकर भी जो मूर्खों अथवा दुष्टों जैसा आचरण करे तो उसके ज्ञान का क्या लाभ अज्ञानी पुरुष का जीवन उसके अज्ञान के कारण भी नष्ट हो जाता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि सेनानायक रहित सेना और पति रहित स्त्री भी शीघ्र नष्ट हो जाती है।
वृध्द्काले मृता भार्या बन्धुहस्ते गतं धनम् ।
भाजनं च पराधीनं स्त्रिः पुँसां विडम्बनाः ।।9।।
भावार्थ- वह आदमी अभागा है जो अपने बुढ़ापे में पत्नी की मृत्यु देखता है।वह भी अभागा है जो अपनी सम्पदा संबंधियों को सौप देता है।वह भी अभागा है जो खाने के लिए दुसरो पर निर्भर है।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य की यह बात बिल्कुल सही है। बुढ़ापे में ही पति-पत्नी को एक-दूसरे की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। ऐसे में यदि पत्नी का निधन हो जाए तो पुरुष के लिए इससे बड़े दुख की कोई बात नहीं हो सकती और चाणक्य कहते हैं कि बंधु बंधुओं द्वारा व्यक्ति का धन हस्तगत कर लिया जाना और भोजन के लिए दूसरों का मुख देखना दूसरों पर आश्रित रहना किसी भी पुरुष के लिए यह बातें मृत्यु सम दुखदाई हैं।
अग्निहोत्रं विना वेदाः न च दानं विना क्रियाः ।
न भावेनविना सिध्दिस्तस्माद्भावो हि कारणम् ।।10।।
भावार्थ- यह बाते बेकार है: वेद मंत्रो का उच्चारण करना लेकिन निहित यज्ञ कर्मो को ना करना एवं यज्ञ करना लेकिन बाद में लोगो को दान दे कर तृप्त ना करना,|पूर्णता तो भक्ति से ही आती है भक्ति ही सभी सफलताओ का मूल है ।
व्याख्या- अग्निहोत्र के बिना वेदों का अध्ययन करना व्यर्थ है दान दक्षिणा के बिना यज्ञदि क्रियाएं निष्फल होती हैं श्रद्धा और भक्ति के बिना किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती अतः भावना ही सब सिद्धियों का मूल कारण है। आचार्य कहते हैं कि शुभ कर्मों में भावना का अत्यधिक महत्व है। भावना से ही व्यक्ति को सिद्धि और सफलता मिलती है। पत्थर की बनी मूर्ति में भगवान नहीं होता सिर्फ व्यक्ति की भावना होती है कि इसमें भगवान का वास है और इसी से उसे सिद्धि प्राप्त होती है।
काष्ठ-पाषाण-धातूनां कृत्वा भावेन सेवनम् ।
श्रध्दया च तया सिध्दिस्तस्य विष्णोः प्रसादतः ।।11।।
भावार्थ- काठ, पाषाण तथा धातु की भी श्रध्दापूर्वक सेवा करने से और भगवत्कृपा से सिध्दि प्राप्त हो जाती है।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि लकड़ी, पत्थर, तावा, लोहा, पीतल आदि की मूर्तियों में भगवान हैं ऐसा मानकर उनकी सेवा पूरी श्रद्धा और भावना से करनी चाहिए इससे भगवान विष्णु प्रसन्न होकर उत्तम फल प्रदान करते हैं।
न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये ।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम् ।।12।।
भावार्थ- देवता न काठ में, पत्थर में, और न मिट्टी ही में रहते हैं वे तो रहते हैं भाव में। इससे यह निष्कर्ष निकला कि भाव ही सबका कारण है।
व्याख्या- भगवान लकड़ी, पत्थर या मिट्टी की मूर्ति में नहीं है। व्यक्ति की भावना ऐसी होती है कि इस मूर्ति में भगवान का वास है यह भावना ही व्यक्ति को सिद्धि प्रदान करती है। प्रह्लाद की ऐसी भावना थी कि ईश्वर हर जगह विद्यमान है अतः जब हिरण्यकश्यप ने उससे पूछा कि क्या इस खंभे में भी भगवान हैं तब प्रह्लाद ने कहा कि हां तब उसकी भावना और विश्वास की रक्षा के लिए भगवान श्री नरसिंह खम्मा फाड़कर प्रकट हुए। इसलिए भावना प्रधान है।
शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्परं सुखम् ।
न तृष्णया परो व्याधिर्न च धर्मो दया परः ।।13।।
भावार्थ- एक संयमित मन के समान कोई तप नहीं, संतोष के समान कोई सुख नहीं, लोभ के समान कोई रोग नहीं और दया के समान कोई गुण नहीं ।
व्याख्या- शांति के समान कोई तप नहीं संतोष से उत्तम कोई सुख नहीं तृष्णा से बढ़कर कोई रोग नहीं और दया से बढ़कर कोई धर्म नहीं। व्यक्ति अपने आवेगों पर काबू रखें उद्देलित जितना हो क्रोध में आपे से बाहर ना हो जाए ऐसा व्यक्ति भी तपस्वी के समान है उसने शांति नामक तप किया है ऐसा जानना चाहिए। संतोष से बड़ा कोई सुख संसार में नहीं है। जो संतोषी है वह बड़ा सुखी है।
असंतोषी व्यक्ति जीवन भर दुखी रहता है क्योंकि उसकी हबस नहीं मिटती। जितना भी मिल जाए वह और पाने की चाह में अपना सुख चैन खोये हुए रहता है। आचार्य कहते हैं कि तृष्णा से बड़ा कोई रोग नहीं है। तृष्णा कभी नहीं मरती। कहा भी गया है
माया मरी न मन मरा मर- मर गया शरीर ।
आशा तृष्णा ना मरी कह गए दास कबीर।।
चौथे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दया से बढ़कर कोई धर्म नहीं। जिस धर्म में दया नहीं वह धर्म नहीं है। तुलसीदास जी ने दया की महत्ता इन शब्दों में की है
दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दयाना छोड़िए जब लग तन में प्राण।।
क्रोधो वैवस्वतो राहा तृष्णा वैतरणी नदी ।
विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नन्दनंवनम् ।।14।।
Anger is a personification of Yama (the demigod of death); thirst is like the hellish river Vaitarani; knowledge is like a kamadhenu (the cow of plenty); and contentment is like Nandanavana (the garden of Indra).भावार्थ- क्रोध साक्षात यम है, तृष्णा नरक की और ले जाने वाली वैतरणी है, ज्ञान कामधेनु है और संतोष ही तो नंदनवन है ।
व्याख्या- क्रोध साक्षात काल है । क्रोधी व्यक्ति कुछ भी कर गुजर सकता है। यहां तक कि व्यक्ति क्रोधवश हत्याएं तक कर देतें हैं। गुरुजनों और माता-पिता का अपमान भी क्रोधी कर बैठता है और कृत्य भी उनकी हत्या करने के समान है। ऐसे व्यक्ति को शीघ्र ही काल ग्रस्त जाता है। तृष्णा वैवरणी नदी के समान है वैवरणी एक ऐसी नदी है
जिसका कोई ओर छोड़ नहीं है। व्यक्ति उसे पार नहीं कर पाता और युगो योगो जन्म जन्मांतर तक उसी में डूबता फिरता है। विद्या कामधेनु के समान लाभप्रद है। व्यक्ति अपनी किसी भी इच्छा की पूर्ति विद्या के द्वारा कर सकता है।
संतोष नंदनवन के समान सुखदाई है।
Moral excellence is an ornament for personal beauty; righteous conduct, high birth; success in learning; and proper spending for wealth.
भावार्थ- नीति की उत्तमता ही व्यक्ति के सौंदर्य का गहना है ।उत्तम आचरण से व्यक्ति उत्तरोत्तर ऊँचे लोक में जाता है ।सफलता ही विद्या का आभूषण है । उचित विनियोग ही संपत्ति का गहना है ।
संतोष नंदनवन के समान सुखदाई है।
गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम् ।
सिध्दिर्भूषयते वद्यां भोगी भूषयते धनम् ।।15।।
भावार्थ- नीति की उत्तमता ही व्यक्ति के सौंदर्य का गहना है ।उत्तम आचरण से व्यक्ति उत्तरोत्तर ऊँचे लोक में जाता है ।सफलता ही विद्या का आभूषण है । उचित विनियोग ही संपत्ति का गहना है ।
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने बड़े ही सुंदर बात कही है गुण मनुष्य के रूप, सौंदर्य को घोषित करते हैं। व्यक्ति कुरुप भी हो लेकिन यदि उसमें गुण भी हैं तो उसकी कुरूपता भी सुंदर दिखाई देती है। वस्तुतः कुरूपता सुंदरता में नहीं बदली जा सकती लेकिन गुणों का प्रभाव ऐसा होता है कि वह कुरूपता में भी सुंदरता पैदा कर देता है।
इस श्लोक के दूसरे खंड में आचार्य कहते हैं कि शील कुल को भूषित करता है। शीलवान या शीलहीन व्यक्ति अपने अपने कुल का परिचय मुख से बिना बोले दे देते हैं। उनके आचरण बता देते हैं कि वे किस कुल से संबंधित हैं।
तीसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि सिद्धि से विद्या भूषित होती है।
चौथे खंड में कहा गया है कि भोग धन को भूषित करते हैं।
निर्गुणस्य हतं रूपं दुःशीलस्य हतं कुलम् ।
असिध्दस्य हता विद्या अभोगेन हतं धनम् ।।16।।
भावार्थ- निति भ्रष्ट होने से सुन्दरता का नाश होता है, हीन आचरण से अच्छे कुल का नाश होता है, पूर्णता न आने से विद्या का नाश होता है और उचित विनियोग के बिना धन का नाश होता है ।
व्याख्या- गुणहीन व्यक्ति की सुंदरता व्यर्थ होती है शील रहित का कुल निन्दित होता है अलौकिक शक्तियों से रहित, मोक्ष की ओर न ले जाने वाले और बुद्धि से रहित विद्या व्यर्थ होती है तथा भोग के बिना धन व्यर्थ होता है। गुणहीन चाहे कितना भी सुंदर हो उसकी सुंदरता व्यर्थ है। उसका जीवन गंध हीन पुष्प की भांति है। शीलहीन व्यक्ति अपने कुल का शत्रु होता है। मूर्खता विद्या की शत्रु है और दान आदि न करने से धन नष्ट हो जाता है।
शुध्दं भूमिगतं तोयं शुध्दा नारी पतिव्रता ।
शुचिः क्षेमकरोराजा संतोषी ब्राह्मणः शुचिः ।।17।।
भावार्थ- जो जल धरती में समां गया वो शुद्ध है, परिवार को समर्पित पत्नी शुद्ध है, लोगो का कल्याण करने वाला राजा शुद्ध है और वह ब्राह्मण शुद्ध है जो संतुष्ट है ।
व्याख्या- धरती के गर्भ से निकलने वाला जल सबसे अधिक शुद्ध होता है। खुला जल अशुद्ध माना गया है क्योंकि उसमें अन्य दूषित पदार्थों के मिलने का भय रहता है। इसी प्रकार पवित्रता नारी शुद्ध मानी गई है। राजा वही भला जो प्रजा का कल्याण करें और ब्राह्मण संतोषी ही भला।
असंतुष्टा द्विजा नष्टाः संतुष्टाश्च महीभृतः ।
सलज्जागणिकानष्टाः निर्लज्जाश्च कुलांगनाः ।।17।।
भावार्थ- असंतुष्ट ब्राह्मण, संतुष्ट राजा, लज्जा रखने वाली वेश्या, कठोर आचरण करने वाली गृहिणी ये सभी लोग विनाश को प्राप्त होते है।
व्याख्या- असंतोषी ब्राह्मण शीघ्र नष्ट हो जाता है। जिसमें संतोष का अभाव है वस्तुतः वह लोभी है। लोभी ब्राह्मण शीघ्र नष्ट हो जाता है। अतः ब्राह्मण को संतोषी होना चाहिए। किंतु राजा को कभी संतोषी नहीं होना चाहिए। जो राजा संतोष करके बैठ जाता है और अपनी सीमाओं का विस्तार नहीं करता वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।
वे वेश्याएं जो लज्जा करती हैं और अपने ग्राहक से खुला व्यवहार नहीं करती वे वेश्याएं शीघ्र नष्ट हो जाती हैं क्योंकि ग्राहक उनके पास जाना बंद कर देते हैं जिससे उनका धंधा चौपट हो जाता है। कुलीन स्त्रियां लज्जा का त्याग करके नष्ट हो जाती हैं
Of what avail is a high birth if a person is destitute of scholarship? A man who is of low extraction is honoured even by the demigods if he is learned.
भावार्थ- क्या करना उचे कुल का यदि बुद्धिमत्ता ना हो ।एक नीच कुल में उत्पन्न होने वाले विद्वान् व्यक्ति का सम्मान देवता भी करते है ।
किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम् ।
दुष्कुलं चापि विदुषी देवैरपि हि पूज्यते ।।19।।
भावार्थ- क्या करना उचे कुल का यदि बुद्धिमत्ता ना हो ।एक नीच कुल में उत्पन्न होने वाले विद्वान् व्यक्ति का सम्मान देवता भी करते है ।
व्याख्या- कितना भी बड़ा और नामी कुल क्यों ना हो यदि विद्या से रहित हैं तो व्यर्थ है। उस कुल से लोगों को कोई लाभ नहीं मिल सकता। इसमें तो कहीं बेहतर छोटे कुल में जन्मा विद्यावान व्यक्ति है जो विद्वानों द्वारा भी पूजित होता है।
विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान्सर्वत्र गौरवम् ।
विद्यया लभते सर्व विद्या सर्वत्र पूज्यते ।।20।।
भावार्थ- विद्वान् व्यक्ति लोगो से सम्मान पाता है ।विद्वान् उसकी विद्वत्ता के लिए हर जगह सम्मान पाता है । यह बिलकुल सच है की विद्या हर जगह सम्मानित है ।
व्याख्या- जगत में विद्वान ही प्रशंसा के योग्य होता है विद्वान ही आदर सम्मान पाता है। उसे ही यश और प्रशंसा मिलती है विद्या से धन-धान्य मान प्रतिष्ठा और सब कुछ प्राप्त हो जाता है। विद्या का हर कहीं सम्मान होता है। विद्या अमूल्य धन है। विद्या के बिना मनुष्य पशु तुल्य है। विद्या के बल पर ही छोटे कुल में पैदा हुआ व्यक्ति भी राजा के यहां सम्मान प्राप्त कर सकता है। विद्याहीन व्यक्ति अच्छे कुल में जन्म लेकर भी अपना सम्मान खो देता है। विद्या ही व्यक्ति का वास्तविक आभूषण है।
मांसभक्षैः सुरापानैः मूर्खैश्चाऽक्षरवर्जितैः ।
पशुभि पुरुषाकारर्भाराक्रान्ताऽस्ति मेदिनी ।।21।।
भावार्थ- यह धरती उन लोगो के भार से दबी जा रही है, जो मास खाते है, दारू पीते है, बेवकूफ है, वे सब तो आदमी होते हुए पशु ही है ।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि खाने या न खाने का विचार न करके मांस भक्षण करने वाले, मद्यपान करने वाले अनपढ़ जिनके लिए काला अक्षर एक बराबर है ऐसे व्यक्ति रंग रूप और आकार में भले ही मनुष्य दिखाई दें किंतु होते वे मनुष्य पशु के समान हैं क्योंकि पशुओं की भांति सोना जागना, खाना पीना और मैथुन करना यही मात्र उनके कार्य हैं। उनके कार्य विवेकीहीन होते हैं।पशु भी विवेकहीन होते हैं। मानव का गुण है विवेकशील होना। जिनमें विवेक नहीं है बे पशुओं से भिन्न कहां हैं।
अन्नहीना दहेद्राष्ट्रं मंत्रहीनश्च रिषीत्विजः ।
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।।22।।
भावार्थ- उस यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं जिसके उपरांत लोगो को बड़े पैमाने पर भोजन ना कराया जाए ।ऐसा यज्ञ राज्यों को खत्म कर देता है ।यदि पुरोहित यज्ञ में ठीक से उच्चारण ना करे तो यज्ञ उसे खत्म कर देता है और यदि यजमान लोगो को दान एवं भेटवस्तू ना दे तो वह भी यज्ञ द्वारा खत्म हो जाता है ।
व्याख्या- शास्त्रों में यज्ञ को बड़ा ही महत्वपूर्ण एवं कल्याणकारी माना गया है किंतु यदि यज्ञ विधान से ना किया जाए और उसमें त्रुटियां रह जाएं तो वही यज्ञ राष्ट्र, पुरोहित एवं यजमानों को नष्ट कर देता है। सवाल है कि त्रुटियांपूर्ण यज्ञ किसे कहा गया है। अन्न से रहित यज्ञ त्रुटिपूर्ण है। ऐसा यज्ञ राष्ट्र का नाश कर देता है।
मंत्रीहीन यज्ञ पुरोहित को नष्ट कर देता है।
दानहीन यज्ञ यजमान को नष्ट कर देता है।