चाणक्य नीति
अर्थनाशं मनस्तापं गृहिणीचरितानि च ।
नीचवाक्यं चाऽपमानं मतिमान्न प्रकाशयेत् ।।1।।
भावार्थ- एक बुद्धिमान व्यक्ति को निम्नलिखित बातें किसी को नहीं बतानी चाहिए: उसकी दौलत खो चुकी है, उसे क्रोध आ गया है, उसकी पत्नी ने जो गलत व्यवहार किया, लोगो ने उसे जो गालिया दी और वह किस प्रकार बेइज्जत हुआ है ।
व्याख्या- गुप्त रखने योग्य बातों का आचार्य चाणक्य ने वर्णन किया है। वे कहते हैं धन का नाश हो जाने का वर्णन विद्वान व्यक्ति को किसी दूसरे के सामने नहीं करना चाहिए। सच है लोगों में यह विश्वास होता है कि फलां व्यक्ति धनवान है। धनवान व्यक्ति का समाज में अलग ही सम्मान होता है निर्धन को कोई नहीं पूछता।
लोगों को यदि इस बात का पता चल जाए कि वह व्यक्ति अब धनवान नहीं रहा तो उसके सम्मान में फर्क आ जाता है। नीति की बात यही है कि यदि लोगों में आपके धनवान होने का भ्रम है तो उस भ्रम को बना रहने दे। धन के नाश होने का जिक्र किसी से ना करें।
इसी प्रकार मन का संताप और घर की दोषों को भी किसी दूसरे के सामने प्रकट न करें इससे कुल की बदनामी होती है। अपने ठगे जाने और किसी के द्वारा अपमानित किए जाने का जिक्र भी व्यक्ति किसी से ना करें। ठगे जाने से अपनी बेवकूफी प्रकट होती है अपमान वाली बात से निर्मलता।
धनधान्मप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च ।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जा सुखी भवेत् ।।2।।
भावार्थ- जो व्यक्ति आर्थिक व्यवहार करने में, ज्ञान अर्जन करने में, खाने में और काम-धंदा करने में शर्माता नहीं है वो सुखी हो जाता है ।
व्याख्या- इस बातों में एक व्यक्ति को संकोच नहीं करना चाहिए- व्यापार आदि में शर्म ना करें हिसाब किताब में पूरा रहे किसी से हुनर सीखने में छोटे-बड़े, उंच नीच का संकोच ना करें और ना ही खाने-पीने में संकोच करना चाहिए। जो व्यक्ति लेन-देन में संकोच करते हैं अपनी बात को स्पष्ट नहीं कर पाते उनके संबंध स्थिर नहीं रह पाते।
स्न्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तिरेव च ।
न च तध्दनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ।।3।।
भावार्थ- जो सुख और शांति का अनुभव स्वरुप ज्ञान को प्राप्त करने से होता है, वैसा अनुभव जो लोभी लोग धन के लोभ में यहाँ वहा भटकते रहते है उन्हें नहीं होता ।
व्याख्या- संतोषी व्यक्ति सदा सुखी रहता है वही इस संसार में शांति से रह पाता है और जो लोग लालच में इधर-उधर भटकते रहते हैं सदा तनावग्रस्त और दुखी रहते हैं मनुष्य की तृष्णाओं का कोई अंत नहीं होता है उसकी इच्छाएं बढ़ती रहती हैं और व्यक्ति इन्हीं इच्छाओं को चक्रव्यूह में फंसकर जीवन भर दुख भोगता है इसीलिए कहा गया है संतोष परम सुखम
सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने ।
त्रिषु चैव न कर्त्तव्योऽध्ययने जपदानयोः ।।4।।
भावार्थ- व्यक्ति नीचे दी हुए ३ चीजो से संतुष्ट रहे; खुदकी पत्नी, वह भोजन जो विधाता ने प्रदान किया और उतना धन जितना इमानदारी से मिल गया ।
व्याख्या- व्यक्ति को चाहिए अपनी पत्नी से ही संतोष करें भले ही वह कैसी भी हो। जो भोजन समय पर प्राप्त हो जाए उसमें संतोष करना चाहिए और मेहनत से जो आय हो उसी में संतोष करें। जो व्यक्ति इन तीनों विषयों में संतोष नहीं करता वह सदा दुखी रहता है और जीवन का सच्चा सुख नहीं उठा पाता। आचार्य चाणक्य ने कहा है कि व्यक्ति को असंतोष भी होना चाहिए किन विषयों में- विद्या ग्रहण करने में अर्थात किसी हुनर के सीखने में, तप करने में अर्थात धार्मिक कृत्य करने में एवं दान करने में।
पत्नी धन एवं भोजन यह तीन व्यक्ति को उसके पूर्व जन्म के कर्मों के अनुरूप प्राप्त होते हैं इसे बदला नहीं जा सकता अतः इन विषयों में असंतोष करने वाला व्यक्ति कुढ़ कुढ़कर अपना ही खून जलाता रहता है। विद्या और दान इन तीनों से व्यक्ति का परलोक सुधरता है अतः इन कार्यों में व्यक्ति को कभी संतोष नहीं करना चाहिए।
थोड़ा अध्ययन करके व्यक्ति यह ना सोचें कि बहुत पढ़ लिख गया थोड़ा सा तप करके यह न सोचे कि मैं तपस्वी बन गया और थोड़ा सा दान देकर अपने मन में बलि होने का भ्रम न पालें।
But one should never feel satisfied with the following three; study, chanting the holy names of the Lord (japa) and charity.
भावार्थ- लेकिन व्यक्ति को नीचे दी हुई ३ चीजो से संतुष्ट नहीं होना चाहिए; अभ्यास, भगवान का नाम स्मरण और परोपकार
विप्रयोर्विप्रह्नेश्च दम्पत्यॊः स्वामिभृत्ययोः ।
अन्तरेण न गन्तव्यं हलस्य वृषभस्म च ।।5।।
भावार्थ- लेकिन व्यक्ति को नीचे दी हुई ३ चीजो से संतुष्ट नहीं होना चाहिए; अभ्यास, भगवान का नाम स्मरण और परोपकार
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं जहां दो लोग खड़े अथवा बैठे हो तो उनके बीच से नहीं गुजरना चाहिए। दो ब्राह्मण हो सकते हैं शास्त्र चर्चा में व्यस्त हों और आप बीच से गुजर जाए इसमें ब्राह्मण एवं शास्त्र दोनों का अपमान होता है ब्राह्मण और अग्नि के बीच से गुजरने की मना ही इसलिए की गई है कि संभव है
ब्राह्मण कोई अनुष्ठान कर रहा हो इससे उसकी साधना भंग हो रही हो। पत्नी पति एवं स्वामी और सेवक हो सकता है किसी गंभीर विषय पर वार्ता कर रहे हो। बैल और हल के बीच से नहीं निकलने पर चोटिल हो जाने का मन में भय रहता है।अतः समझदार एवं बुद्धिमान प्राणियों को चाहिए कि इनके बीच से ना गुजरे।
पादाभ्यां न स्पृशेदग्नि गुरुं ब्राह्मणमेव च ।
नैव गां च कुमारीन न वृध्दं न शिशुं तथा ।।6।।
भावार्थ- इन दोनों के मध्य से कभी ना जाए; दो ब्राह्मण, ब्राह्मण और उसके यज्ञ में जलने वाली अग्नि, पति पत्नी, स्वामी और उसका चाकर एवं हल और बैल।
व्याख्या- उपरोक्त वर्णित सभी पात्र पूजनीय हैं अतः आचार्य इन्हें पांव से स्पर्श करने की मना ही करते हैं। शिशु को पूजनीय इसलिए माना जाता है कि बच्चों में भगवान बसते हैं। जब तक शिशु अपने तेरे की पहचान करना नहीं जानता तब तक वह पवित्र आत्मा है और उसका तारतम्य में ईश्वर से जुड़ा रहता है।
हस्ती हस्तसहस्त्रेण शतहस्तेन वाजिनः ।
श्रृड्गिणी दशहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनः ।।7।।
भावार्थ- अपना पैर कभी भी इनसे न छूने दे; अग्नि, अध्यात्मिक गुरु, ब्राह्मण, गाय, एक कुमारिका, एक उम्र में बड़ा आदमी और एक बच्चा।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि बैलगाड़ी घोड़ा और हाथी से दूरी बनाकर रखनी चाहिए क्योंकि पशु होने के कारण यह कभी भी व्यक्ति का अहित कर सकते हैं। इन में इन से दूरी बनाने की उन्होंने एक सीमा भी निर्धारित की है किंतु दुष्ट को वह इनसे भी खतरनाक मानते हैं और कहते हैं कि उस से दूरी बनाए रखने के लिए मोहल्ला, नगर और देश तक छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिए।
हस्ती अंकुशमात्रेण बाजी हस्तेन ताड्यते ।
श्रृड्गि लकुटहस्ते न खड्गहस्तेन दुर्जनः ।।8।।
भावार्थ- हाथी से हजार गज की दुरी रखे, घोड़े से सौ की, सिंग वाले जानवर से दस की लेकिन दुष्ट जहाँ हो उस जगह से ही निकल जाए ।
व्याख्या- तात्पर्य है कि दुष्ट सुगमता से बस में नहीं आता अर्थात लघु ताड़न से वह अपनी दुष्टता नहीं त्यागता। पशु जहां अंकुश, चाबुक और डंडे से बस में रहता है उन्हें वही दुष्ट व्यक्ति को सुधारने के लिए कभी-कभी मृत्यु का भय दिखाना पड़ता है।
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा घनगर्जिते ।
साधवः परसम्पत्तौ खलाः परविपत्तिषु ।।9।।
भावार्थ- हाथी को अंकुश से नियंत्रित करे, घोड़े को थप थपा के, सिंग वाले जानवर को डंडा दिखा के और एक बदमाश को तलवार से ।
व्याख्या- प्रस्तुति श्लोक में आचार्य चाणक्य ने लोगों की प्रवृत्ति के अनुसार उनकी प्रसन्नता के विषयों का उल्लेख किया है। तो वे कहते हैं कि सब सुख चाहने वाले की कामना करने वाला ब्राह्मण अपने यजमान से मनपसंद भोजन पाकर प्रसन्न होते हैं। मोर मेघों के गरजने मात्र से प्रसन्न होकर नाचने लगते हैं। भद्रजन दूसरों को फलते फूलते देखकर प्रसन्न होते हैं किंतु दुष्ट व्यक्ति को तो दूसरों को मुसीबत में फंसा देखकर ही प्रसन्नता प्राप्त होती है।
अनुलोमेन बलिनं प्रतिलोमेन दुर्जन्म् ।
आत्मतुल्यबलं शत्रुः विनयेन बलेन वा ।।10।।
भावार्थ- ब्राह्मण अच्छे भोजन से तृप्त होते है, मोर मेघ गर्जना से, साधू दुसरो की सम्पन्नता देखकर और दुष्ट दुसरो की विपदा देखकर।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि आपका शत्रु आप से अधिक बलवान है तो उसे विनय पूर्वक जीतने का प्रयत्न करना चाहिए किंतु यदि शत्रु दुष्ट प्रवृत्ति का है तो वहां विनय का प्रदर्शन ना करें। आपकी विनय अथवा सज्जनता को शत्रु आपकी कमजोरी समझ लेगा वह सोचेगा कि आप उससे भयभीत होकर विनय का प्रदर्शन कर रहे हैं
अतः दुष्ट शत्रु को उसी के अनुरूप अर्थात दुष्टता का प्रदर्शन करके बस में करना चाहिए। सम बल वाले शत्रु से भी चाणक्य पहले विनय पूर्वक बस में करने का आदेश करते हैं किंतु यदि वह विनय का कोई महत्व ना दें तो निसंकोच बल प्रदर्शन करना चाहिए।
Conciliate a strong man by submission, a wicked man by opposition, and the one whose power is equal to yours by politeness or force.
भावार्थ- एक शक्तिशाली आदमी से उसकी बात मानकर समझौता करे, एक दुष्ट का प्रतिकार करे और जिनकी शक्ति आपकी शक्ति के बराबर है उनसे समझौता विनम्रता से या कठोरता से करे।
बाहुवीर्य बलं राज्ञो ब्रह्मवित् बली ।
रूप-यौवन-माधुर्य स्त्रीणां बलमनुत्तमम् ।।11।।
भावार्थ- एक शक्तिशाली आदमी से उसकी बात मानकर समझौता करे, एक दुष्ट का प्रतिकार करे और जिनकी शक्ति आपकी शक्ति के बराबर है उनसे समझौता विनम्रता से या कठोरता से करे।
व्याख्या- राजा का बल क्या है? राजा का बल उसकी सैन्य शक्ति है उसकी मंत्री परिषद है इसके अतिरिक्त राजा को स्वयं ही बाहुबली और वीर होना चाहिए। उसकी वीरता ही उसकी शक्ति सकती है क्योंकि अच्छी सेना का गठन भी एक वीर पुरुष ही कर सकता है और उसका संचालन करने के लिए भी बाहुबल चाहिए।
राजा का बल उसकी वीरता है तो ब्राह्मणों का बल उनका ब्रह्म ज्ञान है। इसी प्रकार स्त्रियों का बल उनकी सौंदर्य, लावण्य एवं माधुर्य है। अपनी इसी शक्ति से स्त्रियां बड़े-बड़े तपस्वी और राजा महाराजाओं को अपने बस में कर चुकी हैं इतिहास इसका गवाह है और आज भी स्त्रियां अपने इसी बल से यदा-कदा राजनीतिक बवाल खड़े कर देती हैं।
The power of a king lies in his mighty arms; that of a brahmana in his spiritual knowledge; and that of a woman in her beauty youth and sweet words.
भावार्थ- एक राजा की शक्ति उसकी शक्तिशाली भुजाओ में है, एक ब्राह्मण की शक्ति उसके स्वरुप ज्ञान में है, एक स्त्री की शक्ति उसकी सुन्दरता, तारुण्य और मीठे वचनों में है ।
नाऽत्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वन्स्थलीम् ।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जस्तिष्ठन्ति पादपाः ।।12।।
भावार्थ- एक राजा की शक्ति उसकी शक्तिशाली भुजाओ में है, एक ब्राह्मण की शक्ति उसके स्वरुप ज्ञान में है, एक स्त्री की शक्ति उसकी सुन्दरता, तारुण्य और मीठे वचनों में है ।
व्याख्या- व्यक्ति को अत्यंत सरल और सीधे स्वभाव का कभी नहीं बनना चाहिए। वन में सीधे वृक्ष काट दिए जाते हैं और टेढ़े मेढ़े खड़े रहते हैं जिन्हें कोई नहीं काटता अत्यंत सीधे आदमी को दुनिया उल्लू अथवा मुर्ख समझती है और बिना झिझक के उस पर प्रहार कर देती है। सब टेड़े व्यक्ति से दूर रहते हैं। आत: चाणक्य कहते हैं की अत्यधिक सीधापन भी अच्छा नहीं होता।
यत्रोदकस्तत्र वसन्ति हंसा-स्तथव शुष्कं परिवर्जयन्ति ।
नहंतुल्येन नरेण भाव्यं पुनस्त्यजन्तः पुनराश्र यन्तः ।।13।।
भावार्थ- अपने व्यवहार में बहुत सीधे ना रहे । आप यदि वन जाकर देखते है तो पायेंगे की जो पेड़ सीधे उगे उन्हें काट लिया गया और जो पेड़ आड़े तिरछे है वो खड़े है ।
व्याख्या- हंसों का स्वाभाव है कि वे जलयुक्त सरोवर में ही रहते हैं। सरोवर का जल जब सूख जाता है तो वे उसका त्याग करके अन्य जगह चले जाते हैं फिर जब वर्षा आदि के कारण सरोवर पुन: जलयुक्त हो जाता है तो दुवारा बहां वे लौट आते हैं। चाणक्य कहते हैं कि दुनिया के लिए यह वृद्धि ठीक नहीं। मनुष्य एक बार जिसका साथ पकड़े उसे बुरे समय में छोड़ ना दे। यह स्वार्थ वृत्ति है।
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् ।
तडागोदरसंस्थानां परीस्त्र व इवाम्भसाम् ।।14।।
भावार्थ- हंस वहाँ रहते है जहाँ पानी होता है । पानी सूखने पर वे उस जगह को छोड़ देते है। आप किसी आदमी को ऐसा व्यवहार ना करने दे की वह आपके पास आता जाता रहे।
व्याख्या- चाणक्य कहते हैं कि कमाए हुए धन का त्याग करना ही उसकी रक्षा है। जहां त्याग करने से तात्पर्य है जान देना अथवा धन से जरूरतमंदों की मदद करना लोगों की भलाई के कार्यों में उसका व्यय करना। इस संदर्भ में तालाब का उदाहरण देते हैं कि जिस प्रकार तालाब को स्वच्छ रखने के लिए उसका जल निकालकर स्वच्छ जल का संग्रह किया जाता है क्योंकि पुराना जल सड़ने लगता है।
इसी प्रकार घर में दबा कर रखा धन व्यक्ति को कोई लाभ नहीं दे सकता। लक्ष्मी चंचल है और उसे बंधन स्वीकार नहीं आत: दान अथवा दूसरे लोग कल्याणी कर्मों में उसे व्यय करते रहना चाहिए। इससे धन में बढ़ोतरी तो होती ही है पूर्ण लाभ भी व्यक्ति को प्राप्त होता है।
Accumulated wealth is saved by spending just as incoming fresh water is saved by letting out stagnant water.
भावार्थ- संचित धन खर्च करने से बढ़ता है । उसी प्रकार जैसे ताजा जल जो अभी आया है बचता है, यदि पुराने स्थिर जल को निकल बहार किया जाये ।
यस्यार्स्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्स्थास्तस्य बान्धवाः ।
यस्यार्थाः स पुमाल्लोके यस्यार्थाः सचजीवति ।।15।।
भावार्थ- संचित धन खर्च करने से बढ़ता है । उसी प्रकार जैसे ताजा जल जो अभी आया है बचता है, यदि पुराने स्थिर जल को निकल बहार किया जाये ।
व्याख्या- सैकड़ों वर्ष पूर्व आचार्य चाणक्य द्वारा कही गई यह बात आज के युग में पूरी तरह सत्य सिद्ध हो रही है। जिसके पास धन नहीं होता मित्र उसी मुंह मोड़ लेते हैं बंधु बांधव और परिवार वाले भी उसका परित्याग कर देते हैं। यहां तक कि निर्धन व्यक्ति को इंसान समझने में भी कठिनाई अनुभव की जाती है। अनेक गुणों वाला निर्धन व्यक्ति आज के युग में अपेक्षित रहता है।
स्वर्गस्थितानामहि जीवलोके चत्वारि चिह्नानि वसन्ति देहे ।
दानप्रसंगो मधुरा च वाणी देवार्चनं ब्राह्मणतर्पणं च ।।16।।
भावार्थ- वह व्यक्ति जिसके पास धन है उसके पास मित्र और सम्बन्धी भी बहुत रहते है। वही इस दुनिया में टिक पाता है और उसी को इज्जत मिलती है ।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो दिव्य आत्मा स्वर्ग से सीधे धरती पर अवतरित होती हैं उन्हें पहचानने के लिए उनके गुणों का ध्यान देना चाहिए। यदि ये चार गुण उनमें विद्यमान है तो समझ लेना चाहिए कि वे दिव्य आत्मा सीधे स्वर्ग से अवतरित हुई हैं यह 4 गुण हैं दान देने की आवृत्ति। ऐसे लोग धन को दबाकर नहीं रखते और यथासंभव दान देते हैं अथवा लोक कल्याण के कार्य करते हैं
दूसरे उनकी वाणी में मधुरता एवं मनमोहन होता है। वे अपनी मीठी वाणी से मनुष्यों को ही नहीं जीव-जंतुओं को भी अपना बना लेते हैं।
तीसरे वे देवों के प्रति सदा आदर भाव रखते हैं।
चौथे वे धन वस्त्र आदि देकर ब्राह्मणों को तृप्त करते रहते हैं।
The following four characteristics of the denizens of heaven may be seen in the residents of this earth planet; charity, sweet words, worship of the Supreme Personality of Godhead, and satisfying the needs of brahmanas.
भावार्थ- स्वर्ग में निवास करने वाले देवता लोगो में और धरती पर निवास करने वाले लोगो में कुछ साम्य पाया जाता है। उनके समान गुण है; परोपकार, मीठे वचन, भगवान की आराधना और ब्राह्मणों के जरूरतों की पूर्ति।
अत्यन्तकोपः कटुता च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम् ।
नीचप्रसड्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम् ।।17।।
भावार्थ- स्वर्ग में निवास करने वाले देवता लोगो में और धरती पर निवास करने वाले लोगो में कुछ साम्य पाया जाता है। उनके समान गुण है; परोपकार, मीठे वचन, भगवान की आराधना और ब्राह्मणों के जरूरतों की पूर्ति।
व्याख्या- आचार्य कहते हैं कि पृथ्वी पर ही नर्क भोगने बालों में 6 लक्षण पाए जाते हैं। वे अत्यंत क्रोधी होते हैं, कड़वी वाणी बोलते हैं, दरिद्र होते हैं, अपने परिजनों से बैर पीले रहते हैं नीचों की संगति करते हैं और अकुलीन व्यक्तियों की चाकरी में लगे रहते हैं ये लक्षण जिनमें हो तो समझ लेना चाहिए कि वह पृथ्वी पर ही नरक भोग रहे हैं।
गम्यते यदि मॄगन्द्रमन्दिरं लभ्यते करिकपीलमौक्तिकम् ।
जम्बुकालयगते च प्राप्यते वस्तुपुच्छखरचर्मखण्डनम् ।।18।।
भावार्थ- नरक में निवास करने वाले और धरती पर निवास करने वालो में साम्यता: अत्याधिक क्रोध, कठोर वचन, अपने ही संबंधियों से शत्रुता, नीच लोगो से मैत्री और हीन हरकते करने वालो की चाकरी।
व्याख्या- इस लोक द्वारा चाणक्य स्पष्ट निर्देश करते हैं कि व्यक्ति को सदा बड़े श्रेष्ठ और शक्तिशाली लोगों की ही संगत करनी चाहिए इससे उसे कभी ना कभी अच्छा लाभ हो सकता है। किंतु नीचे की संगति करने से कुछ प्राप्त नहीं होगा शेर की गुफा में जाने वाले को कभी ना कभी हाथी की मस्तक मणि प्राप्त हो सकती है
क्योंकि शेर में ही हाथी का शिकार करने का बल है। यदि शेर हाथी का शिकार करेगा तो वह सिर्फ उसका मांस भक्षण करेगा मस्तक मणि से उसका कुछ लेना देना नहीं होता। वह मणि कभी ना कभी उसकी गुफा में जाने वाले व्यक्ति को प्राप्त हो सकती है किंतु यदि कोई गीदड़ अथवा सियारों की गुफा में जाएगा तो उसे वहां क्या मिलेगा? किसी बछड़े की पूंछ या गधे की चमड़ी।
By going to the den of a lion pearls from the head of an elephant may be obtained; but by visiting the hole of a jackal nothing but the tail of a calf or a bit of the hide of an ass may be found.
भावार्थ- यदि आप शेर की गुफा में जाते हो तो आप को हाथी के माथे का मणि मिल सकता है । लेकिन यदि आप लोमड़ी जहाँ रहती है वहाँ जाते हो तो बछड़े की पूछ या गधे की हड्डी के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
श्वानपुच्छमिच व्यर्थ जीवितं विद्यया विना ।
न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणे ।।19।।
भावार्थ- यदि आप शेर की गुफा में जाते हो तो आप को हाथी के माथे का मणि मिल सकता है । लेकिन यदि आप लोमड़ी जहाँ रहती है वहाँ जाते हो तो बछड़े की पूछ या गधे की हड्डी के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
व्याख्या- विद्या के बिना व्यक्ति का जीवन कुत्ते की पूंछ की भांति होता है क्योंकि कुत्ता अपनी पूछ से ना तो गुप्त इंद्रियों को ढँाक सकता है और ना ही मच्छर आदि को उड़ा सकता है। विद्या श्री के बिना व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है। प्रस्तुत श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कुत्ते की पूंछ का बड़ा ही सुंदर उदाहरण देकर इस तथ्य को स्पष्ट किया है। विद्याहीन व्यक्ति ना तो अपना ही जीवन सांवरपाता और ना ही समाज का कोई भला कर पाता है अतः उसका जीवन व्यर्थ है।
वाचा शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
सर्वभूते दया शौचमेतच्छौचं परार्थिनाम् ।।20।।
भावार्थ- एक अनपढ़ आदमी की जिंदगी किसी कुत्ते की पूछ की तरह बेकार है। उससे ना उसकी इज्जत ही ढकती है और ना ही कीड़े मक्खियों को भागने के काम आती है।
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने पवित्र व्यक्ति के लक्षण बताएं हैं। कहा जाता है कि जो मन कर्म और वचन से पवित्र हो वही पवित्र है। इस श्लोक का भी यही अर्थ है जिसकी वाणी पवित्र है, जिसका मन शुद्ध है, जिंदगी इंद्रियां उसके नियंत्रण में हैं, जिसके मन में दया है, वही पवित्र है। देखा माना गया है।
पुष्पे गन्धतिले तैलं काष्ठे वह्नि पयो घृतम् ।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्याऽऽत्मानं विवेकतः ।।21।।
भावार्थ- यदि आप दिव्यता चाहते है तो आपके वचन, मन और इन्द्रियों में शुद्धता होनी चाहिए । उसी प्रकार आपके ह्रदय में करुणा होनी चाहिए।
व्याख्या- मनुष्य मात्र एक शरीर नहीं बल्कि आत्मा है व्यक्ति को इस रहस्य को समझना चाहिए। शरीर में आत्मा उसी प्रकार विद्यमान रहती है जिस प्रकार फूल में जो सुगंध रहती है लकड़ी में आग, गन्ने में गुड़, दूध में घी रहते हैं पर दिखाई नहीं देते उन्हें देखने के लिए विचार पूर्वक प्रयास करना होगा इसी प्रकार आत्मा को जानने के लिए विवेक की आवश्यकता होती है।