चाणक्य नीति
श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम् ।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात् ।।1।।
भावार्थ- श्रवण करने से धर्म का ज्ञान होता है, द्वेष दूर होता है, ज्ञान की प्राप्ति होती है और माया की आसक्ति से मुक्ति होती है.
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि धर्म के मर्म को समझने के लिए व्यक्ति को वेदादि ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए। शास्त्रों के अध्ययन के पश्चात ही व्यक्ति धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ सकता है। इसी प्रकार विद्वानों के प्रवचन सुनकर एवं उन पर अमल करके व्यक्ति दुर्बुद्धि का त्याग कर सकता है। विद्वान जन अपने वचनों एवं प्रवचन ऐसे व्यक्ति को शास्त्र सम्मत विधान से अवगत कराते हैं जिससे उसे अच्छे बुरे का बोध होता है। करने और न करने योग्य कार्यों की समझ आती है जिससे उसकी अज्ञानता दूर हो जाती है।
पक्षिणां काकचाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः ।
मुनीनां पापी चाण्डालः सर्वचाण्डालनिन्दकः ।।2।।
भावार्थ- पक्षीयों में कौवा नीच है, पशुओ में कुत्ता नीच है, जो तपस्वी पाप करता है वो घिनौना है, लेकिन जो दूसरो की निंदा करता है वह सबसे बड़ा चांडाल है .
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि पक्षियों में तो कौए को चांडाल कहा गया है और पशुओं में कुत्ते को। ऐसा साधु क्रोध करें आचार्य उसे भी चांडाल की संज्ञा देते हैं। वस्तुतः जिस साधु ने अपने क्रोध पर ही विजय नहीं पाई वह कैसा साधु कैसा मुनि। साधु तो उसे ही कहा जाएगा जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हो।
जिसकी इंद्रियां ही उसके बस में नहीं है और वह बस साधु होने का ढोंग करें तो यह चांडालपन ही है। सब से भी बड़ा चांडाल आचार्य निंदक को मानते हैं। पीठ पीछे लोगों की निंदा करने वाला कौवे, कुत्ते और पाखंडी साधु से भी बड़ा चांडाल है। ध्यान रहे निंदा कर्म को सबसे घृणित कर्म माना गया है।
Brass is polished by ashes; copper is cleaned by tamarind; a woman, by her menses; and a river by its flow.
भावार्थ- राख से घिसने पर पीतल चमकता है . ताम्बा इमली से साफ़ होता है |औरते प्रदर से शुद्ध होती है . नदी बहती रहे तो साफ़ रहती है.
भस्मना शुध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन शुध्यति ।
रजसा शुध्यते नारि नदी वेगेन शुध्यति ।।3।।
भावार्थ- राख से घिसने पर पीतल चमकता है . ताम्बा इमली से साफ़ होता है |औरते प्रदर से शुद्ध होती है . नदी बहती रहे तो साफ़ रहती है.
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं की कांसे का बर्तन राख से मांजने से शुद्ध हो जाता है और तांबे का बर्तन खटाई से मांजने से शुद्ध हो जाता है। चाणक्य कहते हैं कि नारी की शुद्धि रजोदर्शन के उपरांत होती है। उसी प्रकार नदी बहती रहे तो शुद्ध रहती है यदि नदी का बहाव रुक जाए तो पानी सड़ने लगता है इसलिए बहती हुई नदी शुद्ध कही गई है
भ्रमन्संपूज्यते राजा भ्रमन्संपूज्यते द्विजः ।
भ्रमन्संपूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति ।।4।।
भावार्थ- राजा, ब्राह्मण और तपस्वी योगी जब दुसरे देश जाते है, तो आदर पाते है. लेकिन औरत यदि भटक जाती है तो बर्बाद हो जाती है .
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने बड़ी ही अच्छी बात कही है। वे कहते हैं कि भ्रमण करने वाला राजा अपनी प्रजा में पूजा जाता है उचित ही है। घूम फिर कर अपनी प्रजा के सुख दुख की टोह लेने वाला राजा प्रजा के दुखों को जानकर उन्हें दूर करता है और प्रजा से पूरा सम्मान व आदर पाता है।
इस श्लोक के दूसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि भ्रमण करने वाला अर्थात विद्वान भी पूजा जाता है। भ्रमणकारी विद्वान अपने ज्ञान का प्रकाश फैला कर प्रजाजनों में जागरूकता उत्पन्न करता है अज्ञान के अंधकार को दूर करता है इसलिए वह पूजनीय है।
इस श्लोक के तीसरे खंड में आचार्य चाणक्य भ्रमण कारी योगी को पूजनीय बताते हैं यह सत्य है कि योगी कभी एक ही स्थान पर नहीं रह सकते। योगी अपने योग बल से जनसाधारण को लाभान्वित करता है अतः वह पूजनीय माना गया है। किंतु आचार्य चाणक्य कहते हैं कि भ्रमण करने वाली स्त्री शीघ्र ही भ्रष्ट हो जाती है। सत्य है जो स्त्री इधर-उधर ताक झांक करती है और परपुरुषों में रुचि लेती हो वह भला कब तक पवित्र रह सकती है इस प्रकार की स्त्री शीघ्र पतित होकर भ्रष्ट हो जाती है।
तादृशी जायते बुध्दिर्व्यवसायोऽपि तादृशः ।
सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता ।।5।।
भावार्थ- सर्व शक्तिमान के इच्छा से ही बुद्धि काम करती है, वही कर्मो को नियंत्रीत करता है. उसी की इच्छा से आस पास में मदद करने वाले आ जाते है.
व्याख्या- इसी श्लोक में आचार्य चाणक्य ने मनुष्य के भाग्य की ओर संकेत किया है। जैसा मनुष्य के भाग्य में लिखा होता है उसकी बुद्धि भी उसी के अनुसार कार्य करती है। यदि किसी व्यक्ति के भाग्य में यस लिखा है तो ईश्वर की कृपा से उसकी बुद्धि भी अच्छा सोचती है वैसे ही उसे अच्छे साधन प्राप्त हो जाते हैं यशोवृद्धि करने वाला व्यवसाय मिल जाता है और साथी भी ऐसे मिल जाते हैं जो उसकी उन्नति में सहायक होते हैं।
यदि किसी के भाग्य में अपशय लिखा हो तो उसकी बुद्धि भी वैसी ही छिछोरी बातें सोचेगी वैसे ही उसे साधन मिलेंगे और वैसे ही उसको साथी मिलेंगे जो उसे कुमार्ग पर ढकेल कर अपशय का भागी बना देंगे। यह स्पष्ट तौर पर आचार्य चाणक्य का संकेत प्रारब्ध की ओर है पूर्व जन्मों में जैसे कर्म व्यक्ति ने किए होंगे इस जन्म में पैसा ही उसे फल मिलेगा।
Time perfects all living beings as well as kills them; it alone is awake when all others are asleep. Time is insurmountable.
भावार्थ- काल सभी जीवो को निपुणता प्रदान करता है. वही सभी जीवो का संहार भी करता है. वह जागता रहता है जब सब सो जाते है . काल को कोई जीत नहीं सकता.
कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः ।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ।।6।।
भावार्थ- काल सभी जीवो को निपुणता प्रदान करता है. वही सभी जीवो का संहार भी करता है. वह जागता रहता है जब सब सो जाते है . काल को कोई जीत नहीं सकता.
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने काल की महत्ता का वर्णन किया है। वे कहते हैं की काल सर्वोपरि है सब कुछ कार्य के अधीन है। काल ने पूर्व में सबको ग्रस लिया है काल ही प्रजा का संहार करता है। काल कभी सोता नहीं है जब सब सो जाते हैं तब भी काल जगता रहता है जो कोई नहीं देख पाता उसे भी काल देख लेता है यह पूरा संसार काल के अधीन है उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती।
संक्षेप में कहा जाए तो काल ही बलवान है उससे अधिक बलवान कोई नहीं। काल ना केवल जीव धारियों को बल्कि जड़ समझी जाने वाली वस्तुओं को भी खा जाता है। बड़ी बड़ी मजबूत इमारतें, किले, महल, दुमहले उनको भी काल ने ग्रास बना लिया है। काल का चक्र हमेशा चलता रहता है और वह सभी को समय अनुसार निकलता है। आज भले ही विज्ञान ने कितनी उन्नति करनी है किंतु काल को वह भी नहीं जीत सका। योग साधना द्वारा भी काल के प्रभाव को जीत नहीं सकता।
Those born blind cannot see; similarly blind are those in the grip of lust. Proud men have no perception of evil; and those bent on acquiring riches see no sin in their actions.
न पश्यति च जन्माधः कामान्धो नैव पश्यति ।
मदोन्मत्ता न पश्यन्ति अर्थी दोषं न पश्यति ।।7।।
भावार्थ- जो जन्म से अंध है वो देख नहीं सकते. उसी तरह जो वासना के अधीन है वो भी देख नहीं सकते .अहंकारी व्यक्ति को कभी ऐसा नहीं लगता की वह कुछ बुरा कर रहा है. और जो पैसे के पीछे पड़े है उनको उनके कर्मो में कोई पाप दिखाई नहीं देता.
व्याख्या- आंखें होते हुए भी कुछ लोगों को अंधा माना गया है प्रस्तुति श्लोक में आचार्य चाणक्य ने उन्हीं अंधों के विषय में बताया है। वे कहते हैं कि जन्म से ही जो व्यक्ति अंधा है वह तो देख ही नहीं पाता उसकी विवशता है किंतु जो काम के अधीन है वह भी अंधा ही है। काम ही व्यक्ति को शिवाय इसके कि उसकी का पूर्ति कैसे हो कुछ दिखाई नहीं देता। कहीं भी किसी भी सुंदर स्त्री को देखकर वह सब को अनदेखा करके गंदी हरकतें करने लगता है इसीलिए कामी पुरुष को अंधा कहा गया है।
इसी प्रकार नशा करने वाला व्यक्ति भी अंधा है। नशे के कारण वह अच्छे बुरे की समझ खो बैठता है और गलत हरकतें करता है। इसका दूसरा भी अर्थ हो सकता है कि व्यक्ति नशे की पूर्ति के लिए अंधा हो जाता है वह विवेक खो देता है और ऐसे कार्य कर बैठता है जो निंदनीय होते हैं।
हाथी अथवा स्वार्थी को भी अंधा कहा गया है। स्वार्थ पूर्ति के लिए ऐसा व्यक्ति किसी भी हद तक गिर सकता है। येन केन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करने की धुन में वह किसी की परवाह नहीं करता और सब को अनदेखा करके स्वार्थ सिद्ध के प्रयास में लगा रहता है।
The spirit soul goes through his own course of karma and he himself suffers the good and bad results thereby accrued. By his own actions he entangles himself in samsara, and by his own efforts he extricates himself.
स्वयं कर्म करोत्यत्मा स्वयं तत्फलमश्नुते ।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ।।8।।
भावार्थ- जीवात्मा अपने कर्म के मार्ग से जाता है. और जो भी भले बुरे परिणाम कर्मो के आते है उन्हें भोगता है. अपने ही कर्मो से वह संसार में बंधता है और अपने ही कर्मो से बन्धनों से छूटता है.
व्याख्या- व्यक्ति अपनी स्थिति का स्वय ही जिम्मेदार है कोई दूसरा कदापि नहीं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति ही अच्छे बुरे कर्म करता है इसलिए उसी से ही उन कर्मों के अनुरूप मिलने वाले अच्छे बुरे फल भोगने पड़ते हैं। जीवात्मा अच्छे बुरे कर्म करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है। उस परम सत्ता ने उसे बुद्धि और विवेक दिया है। उनके प्रयोग से जो जैसे कर्म करता है वैसे ही फल भोगता है।
अपने कर्मों के परिणाम स्वरुप ही व्यक्ति 84000 योनियों में भ्रमण करता है और अपने कर्मों के फल स्वरुप ही मोक्ष को प्राप्त होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राणी जैसे कर्म करता है उसे वैसे ही फल भोगने पड़ते हैं। यदि आज कोई दुखों में फंसा दिखाई देता है तो उसका जिम्मेदार वह समय है अपने कर्मों के फल स्वरुप ही वह दुखों को भोग रहा है। जो सुख भोग रहे हैं उनके शुभ कर्मों के फल हैं वस्तुतः व्यक्ति को शुभ कर्म करके अपने मोक्ष का साधन करना चाहिए।
राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः ।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा ।।9।।
भावार्थ- राजा को उसके नागरिको के पाप लगते है. राजा के यहाँ काम करने वाले पुजारी को राजा के पाप लगते है. पति को पत्नी के पाप लगते है. गुरु को उसके शिष्यों के पाप लगते है.
व्याख्या- यदि किसी राष्ट्र की प्रजा पाप कर्म करती है तो उसके लिए सीधे तौर पर राजा ही जिम्मेदार माना जाता है क्योंकि उसका कार्य धर्म एवं सज्जनों की रक्षा कर धर्म अनुसार राज्य का संचालन करना है। इसके के लिए दंड विधान राजा बनाता है किंतु यदि राजा अपने कर्तव्यों का सही पालन नहीं करता और राज्य में अपराधियों एवं दुष्टों का वर्चस्व हो जाता है जिससे साधु वृति की प्रजा कष्ट उठाती है जो प्रजा इसका दोष राजा को देती है। राजनीति शास्त्र में इसके लिए राजा को ही दोषी मानते हैं। तो ऐसे में जब पाप अत्यधिक बढ़ जाता है तो राजा को अपने राज्य से भी हाथ धोना पड़ जाता है। इसी प्रकार यदि राजा कोई पाप करता है
राजा बिलासी हो जाए मद पान आदि करके अपने कर्तव्य से मुंह मोड़े तो उसका दूसरी राजा का पुरोहित अर्थात मंत्री माना जाता है जोकि उसका मुख्य सलाहकार होता है। पुरोहित का कर्तव्य है कि राजा को अच्छी सलाह दे। उसे कर्मों के लिए प्रेरित करें। अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए उसके सामने राष्ट्र की सही तस्वीर प्रस्तुत करें। यदि वह ऐसा नहीं करता तो प्रजा में आक्रोश फैल जाता है प्रजा विद्रोह पर उतर आती है तब राजा सावधान होता है और पुरोहित अर्थात मंत्री को इस बात के लिए दंडित कहता है कि समय रहते उसने उसे सचेत क्यों नहीं किया।
इस श्लोक के दूसरी पंक्ति में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि पत्नी के कर्मों का दंड पति और शिष्यों के पापों का दंड गुरु को भोगना पड़ता है। पति घर का मुखिया होता है उसका कर्तव्य है कि पत्नी को नियंत्रण में रखें। शास्त्रों में पति को पत्नी के गुरु का दर्जा भी दिया गया है उसका कर्तव्य है कि वह पत्नी को सदकार्यों की ओर प्रेरित करें। पत्नी पति के कर्तव्य विमुक्त एवं ढिलाई के कारण पाप कर्मों की ओर प्रवृत्त हो जाती है तो इसके बदले में पति को अपने कुल की प्रतिष्ठा एवं मान सम्मान से हाथ धोना पड़ता है और पत्नी के पाप कर्मों का दंड भुगतना पड़ता है
अतः पति का कर्तव्य है कि वह पत्नी को नियंत्रण में रखें। इसी प्रकार गुरु के शिष्य के पापों का दंड भोगना पड़ता है जब कोई शिष्य किसी कुमार्ग पर चलता है तो लोग और समाज सर्वप्रथम इसका दोष उसके गुरु को देते हैं कि गुरु ने उसे अच्छी शिक्षा नहीं दी। शिष्य के पाप कर्म गुरु की प्रतिष्ठा को खा जातें हैं
A father who is a chronic debtor, an adulterous mother, a beautiful wife, and an unlearned son are enemies.
ऋणकर्ता पिता शत्रुमाता च व्यभिचारिणी ।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ।।10।।
भावार्थ- अपने ही घर में व्यक्ति के ये शत्रु हो सकते है: उसका बाप यदि वह हरदम कर्ज में डूबा रहता है, उसकी माँ यदि वह दुसरे पुरुष से संग करती है, सुन्दर पत्नी और वह लड़का जिसने शिक्षा प्राप्त नहीं की.
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो पिता अपनी संतान पर कर्ज का बोझ छोड़कर मर जाता है वह उसका शत्रु होता है। कुछ व्यक्ति जीवन में अपने कर्तव्यों का सही से पालन नहीं करते अपनी काम चोर प्रवृत्ति होने के कारण ऋण लेकर संतान का पालन पोषण करते हैं फिर एक दिन काल का ग्रास हो जाते हैं और ॠण का बोझ संतान पर छोड़ जाते हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ऐसी पिता संतान के शत्रु हैं।
इस श्लोक के दूसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यभिचार करने वाली माता अपने पुत्र की शत्रु है। माता की दुष्कर्म के कारण पुत्र कहीं भी नजरें उठाने की योग नहीं रहता लोग उसे अच्छी दृष्टि से नहीं देखते और मां के दुष्कर्म का हवाला देकर ताने कसते हैं जिससे पुत्र का जीना दुश्वार हो जाता है।
इस श्लोक के तीसरे खंड वे कहते हैं कि बहुत अधिक सुंदर पत्नी पति की शत्रु मानी गई है वस्तुतः ऐसी स्त्री सुंदरता के कारण अभिमान में रहती है। वह पति को सदा उपेक्षा कर उन लोगों की ओर आकर्षित होती रहती हैं जो उसकी सुंदरता की तारीफ करते रहते हैं।
अपनी इस अपेक्षा से पति आहत होता है। बहुत से मामलों में देखा गया है कि कुछ स्त्रियां सुंदरता के अहंकार में अपने पति को अपेक्षित कर पर पुरुष से अनैतिक संबंध बना लेती हैं पति विरोध करता है तो वे अपने कथित प्रेमियों के सहयोग से पति की हत्या तक करवा देती हैं इसलिए चाणक्य बहुत अधिक सुंदर स्त्री का भी विरोध करते हैं। दोनों में समानता होनी चाहिए 19-20 का फर्क चल सकता है मगर यदि पत्नी अति सुंदर हो और पति कम सुंदर हो तो स्थिति बढ़ेगी ही यह सत्य है।
इस श्लोक के चौथे खंड में आचार्य चाणक्य ने मूर्ख पुत्र को माता पिता का शत्रु कहां है। सत्य है पिछले इस श्लोक में इस तथ्य को स्पष्ट भी किया गया है कि पुत्र का ना होना दुखदाई है पुत्र का होकर मर जाना उससे अधिक दुखदाई है किंतु पुत्र का मूर्ख होना सबसे अधिक दुखदाई है मूर्ख पुत्र माता पिता को जीवन भर कष्ट पहुंचाता रहता है। इसलिए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि कर्जदार पिता व्यभिचारिणी माता सुंदर पत्नी और मूर्ख पुत्र शत्रु के समान हैं।
लुब्धमर्थेन गृहिणीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा ।
मूर्खं छन्दानुवृत्या च यथार्थत्वेन पण्डितम् ।।11।।
भावार्थ- एक लालची आदमी को वस्तु भेट दे कर संतुष्ट करे. एक कठोर आदमी को हाथ जोड़कर संतुष्ट करे. एक मुर्ख को सम्मान देकर संतुष्ट करे. एक विद्वान् आदमी को सच बोलकर संतुष्ट करे.
व्याख्या- धन के लोभी को धन का लालच देकर बस में किया जा सकता है। मूर्ख व्यक्ति को बस में करने के लिए उसकी इच्छा पूर्ति की जाए उसके मन मुताबिक कार्य करके उसे बस में किया जा सकता है हठी व्यक्ति को हाथ जोड़कर,मस्तक नवाकर कर अर्थात उसके अहम् को तुष्ट करके बस में किया जा सकता है किंतु बुद्धिमान व्यक्ति को किसी प्रकार के लोग लालच या दिखावे से अथवा झूंठे मान सम्मान कर के बस में नहीं किया जा सकता।
वरं न राज्यं न कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम् ।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदाराः ।।12।।
भावार्थ- एक बेकार राज्य का राजा होने से यह बेहतर है की व्यक्ति किसी राज्य का राजा ना हो. एक पापी का मित्र होने से बेहतर है की बिना मित्र का हो. एक मुर्ख का गुरु होने से बेहतर है की बिना शिष्य वाला गुरु हो. एक बुरी पत्नी होने से बेहतर है की बिना पत्नी वाला हो.
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने बड़ी ही सुंदर बात कही है। यह चारों बातें सुख चाहने वाले को गांठ में बांध लेनी चाहिए।
पहली- किसी राज्य में यदि दुष्ट राजा हो तो व्यक्ति को चाहिए कि उसका वरण करें अर्थात उस राज्य में ना रहे और यदि रह रहा हो तो शीघ्र ही उसे त्याग दें। ऐसे राज्य में रहने से अच्छा है कि व्यक्ति वन में रह ले। दुष्ट राजा के राज्य में कदापि शांति और सुरक्षा नहीं मिल सकती। वहां अराजक तत्वों का बोलबाला रहता है और व्यक्ति दुखी व भयभीत रहता है इससे तो अच्छा है कि व्यक्ति या तो परदेश में जाकर रहे या वन में।
दूसरा- व्यक्ति के बहुत सारे मित्र हैं और सभी स्वार्थी कपटी लोभी और दुराचारी हो ऐसे मित्रों के होने से लाख गुना बेहतर है कि व्यक्ति मित्र हीन होकर रहे। मित्रों का ना होना कोई दुख की बात नहीं है मगर स्वार्थी और दुष्ट मित्र व्यक्ति को कभी ना रखें।
तीसरी- किसी गुरु के लिए यह बड़े दुख की बात होती है कि उसके शिष्य दुष्ट,आज्ञा ना मानने वाला कुकर्मों में लीन रहने वाला हो ऐसे शिष्य होने से तो अच्छा है शिष्य का ना होना।
चौथी- व्यक्ति के जीवन में पत्नी का विशेष महत्व एवं स्थान होता है। पत्नी पति की अनुदामिनी होनी चाहिए तभी व्यक्ति जीवन सुख शांति पूर्वक व्यतीत होता है किंतु यदि पत्नी दुष्ट है कर्कशा है पति की आज्ञा का उल्लंघन कर मनमानी करने वाली है तो ऐसी पत्नी का तुरंत त्याग कर देना चाहिए। ऐसी पत्नी को घर में रखने से अच्छा है कि व्यक्ति पत्नी के बिना रहे। तात्पर्य है की दुष्ट राजा, दुष्ट मित्र, दुष्ट शिष्य और दुष्ट पत्नी सदा त्याग देने योग्य हैं
कुराजराज्येन कुतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिर्वृतिः ।
कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः ।।13।।
भावार्थ- एक बेकार राज्य में लोग सुखी कैसे हो? एक पापी से किसी शान्ति की प्राप्ति कैसे हो? एक बुरी पत्नी के साथ घर में कौनसा सुख प्राप्त हो सकता है? एक नालायक शिष्य को शिक्षा देकर कैसे कीर्ति प्राप्त हो?
व्याख्या- दुष्ट राजा के राज्य में प्रजा को सुख मिलना संभव नहीं। धोखा देने वाले मित्र की मित्रता से आनंद, दुष्ट स्त्री को भार्या बनाने से घर में प्रीति और कुठित मस्तिष्क वाले शिष्य को पढ़ाने से यश मिलना असंभव है। इस श्लोक का सम्बन्ध भी उपरोक्त श्लोक से है तात्पर्य इसका भी यही है कि दुष्ट राजा मित्र पत्नी और शिष्य इनके साथ व्यक्ति को कभी सुख नहीं मिल सकता अतः यह सर्वथा त्यागने योग्य हैं
सिंहादेकं वकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात् ।
वायसात्पञ्च शिक्षेच्चष्ट् शुनस्त्रीणिगर्दभात् ।।14।।
भावार्थ- शेर से एक बात सीखे, बगुले से एक, मुर्गे से चार, कौवे से पाँच, कुत्ते से छह और गधे से तीन.
व्याख्या- मनुष्य को सिंह और बगुले से एक-एक, मुर्गे से चार और कौवे से पांच, कुत्ते से छह और गधे से तीन गुण ग्रहण करने चाहिए। अगले श्लोक में चाणक्य गुणों का खुलासा कर रहे हैं।
प्रभूतं कार्यमपि वा तन्नरः कर्तुमिच्छति ।
सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते ।।15।।
भावार्थ- शेर से यह बढ़िया बात सीखे की आप जो भी करना चाहते हो एकदिली से और जबरदस्त प्रयास से करे.
व्याख्या- सिंह अपने शिकार के लिए पूरा बल लगा देता है और अंततः अपने शिकार को दबोच कर ही शांत होता है। शेर का एक विशेष गुण है। वह हर घड़ी शिकार नहीं करता रहता भूख लगने पर ही शिकार की तोह हमें निकलता है और अपने भोजन के लिए जिस शिकार को चुन लेता है पूरे बल और सामर्थ्य से उस पर विजय पाकर ही शांत बैठता है
इसी प्रकार व्यक्ति को चाहिए जब भी वह कोई कार्य हाथ में ले तो उसे पूरे बल और सामर्थ्य से उसमें विजय श्री पाकर ही शांत हो। पूरे बल और सामर्थ्य से ही व्यक्ति को अपने कार्य में सफलता मिलती है।
The wise man should restrain his senses like the crane and accomplish his purpose with due knowledge of his place, time and ability.
भावार्थ- बुद्धिमान व्यक्ति अपने इन्द्रियों को बगुले की तरह वश में करते हुए अपने लक्ष्य को जगह, समय और योग्यता का पूरा ध्यान रखते हुए पूर्ण करे.
इन्द्रियाणि च संयम्य वकवत् पण्डितो नरः ।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत् ।।16।।
भावार्थ- बुद्धिमान व्यक्ति अपने इन्द्रियों को बगुले की तरह वश में करते हुए अपने लक्ष्य को जगह, समय और योग्यता का पूरा ध्यान रखते हुए पूर्ण करे.
व्याख्या- यह बगुलेका विशेष गुण है कि जब वहअपने शिकार का ध्यान करता है तो उसे दूसरी किसी बात का ध्यान नहीं रहता। यदि वह देख लेता है इस शिकार के लिए समय अनुकूल नहीं अथवा शिकार उसकी पहुंच से बाहर है और उसका प्रयास व्यर्थ जाएगा तब वह शिकार करने का ख्याल रख कर देता है। वह अनुकूल स्थान समय और व्यक्ति के अनुसार ही शिकार करता है
बेमतलब जगह में चोंच नहीं मारता फिरता। आंखें मूंदकर वह टांग पर खड़ा हो जाता है और ज्यों ही शिकार उसकी समर्थ कि जग में आती है वह झट से चोट मारकर उसे पकड़ लेता है। इसी प्रकार व्यक्ति को चाहिए कि अपनी शक्ति समय ध्यान का पूरा प्रयोग कर ही कार्य करें। बगुले का यह गुण उसे ग्रहण करना चाहिए।
To wake at the proper time; to take a bold stand and fight; to make a fair division (of property) among relations; and to earn one's own bread by personal exertion are the four excellent things to be learned from a cock.
भावार्थ- मुर्गे से हे चार बाते सीखे: सही समय पर उठे, नीडर बने और लढ़े, संपत्ति का रिश्तेदारों से उचित बटवारा करे और अपने कष्ट से अपना रोजगार प्राप्त करे.
प्रत्युत्थानञ्च युध्द्ञ्च संविभागञ्च बन्धुषु ।
स्वयमाक्रम्यभुक्तञ्चशिक्षेच्चत्वारिकुक्कुटात् ।।17।।
भावार्थ- मुर्गे से हे चार बाते सीखे: सही समय पर उठे, नीडर बने और लढ़े, संपत्ति का रिश्तेदारों से उचित बटवारा करे और अपने कष्ट से अपना रोजगार प्राप्त करे.
व्याख्या- मुर्गे का पहला गुण ठीक समय पर जाग जाना। बुद्धिमान व्यक्ति को भी चाहिए कि वह भोर में ही बिस्तर का त्याग कर दे। विद्वानों का कथन है कि प्रभात काल मेंबिस्तर कर देने से व्यक्ति को शारीरिक और आत्मिक बल प्रदान होता है।
मुर्गे का दूसरा गुण युद्ध के लिए सदा तत्पर रहना । वस्तुतः इसका तात्पर्य सजग रहने से है। व्यक्ति को सदा सजग रहना चाहिए। शत्रु के बाहर का जवाब देने एवं किसी आपत्ति विपत्ति अथवा संकट से जूझने के लिए सदा तैयार रहना चाहिए।
तीसरा बन्धु बंधबों के साथ मिल बांट कर खाना।
चौथा गुण है आक्रमण करके भोजन करना यहां आक्रमण का तात्पर्य लड़ाई झगड़े से कदापि नहीं है। आक्रमण से अर्थ है कहीं भोजन हो तो उसे जल्द से जल्द झपटना। बुद्धिमान व्यक्ति को अफसर झपट लेना चाहिए जो मिले बंधु बंधुओं के साथ मिलकर बांट कर खाना चाहिए सदा सजग रहना चाहिए और भोर होने से पहले ही बिस्तर छोड़ देना चाहिए । यह चार गुण मुर्गे से हर व्यक्ति को सीखने चाहिए।
गूढमैथुनचारित्वं काले काले च संग्रहम् ।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात् ।।18।
भावार्थ- कौवे से ये पाच बाते सीखे: अपनी पत्नी के साथ एकांत में प्रणय करे, नीडरता, उपयोगी वस्तुओ का संचय करे, सभी ओर दृष्टी घुमाये और दुसरो पर आसानी से विश्वास ना करे.
व्याख्या- पछियों में कौआ सबसे ढीठ होता है तथा उसमें अन्य चार गुण और बताए गए हैं। व्यक्ति को चाहिए कि वह कौए के इन पांचों गुणों को ग्रहण कर अपने जीवन में प्रयोग करें। व्याख्या कार वस्तुतः ढीठपन को गुण नहीं मानता किसी भी नीति की दृष्टि से भी ढीठपन दिखाना भी पड़ता है यह भी किसी विशेष स्थिति में ही होता है। बांकी वास्तव में 4 गुण हैं और इन्हें बुद्धिमान को ग्रहण करना चाहिए।
बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सनिद्रो लघुचेतनः ।
स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेतो श्वानतोगुणाः ।।19।।
भावार्थ- कुत्ते से ये बाते सीखे : बहुत भूख हो पर खाने को कुछ ना मिले या कम मिले तो भी संतोष करे, गाढ़ी नींद में हो तो भी क्षण में उठ जाए, अपने स्वामी के प्रति बेहिचक इमानदारी रखे और नीडरता.
व्याख्या- प्रस्तुत लोक में आचार्य चाणक्य ने कुत्ते के इन 6 गुणों का वर्णन किया है। व्यक्ति को कुत्ते से यह 6 गुण प्राप्त करने चाहिए। उल्लेखनीय है कि कुत्ते को अधम माना गया है। तब भी उसमें कुछ गुण हैं। पूर्व में आचार्य चाणक्य कह चुके हैं किसी निकृष्ट प्राणी में यदि गुण हैं तो समझदार व्यक्ति को चाहिए कि उन्हें ग्रहण करें मिलने पर बहुत अधिक खाना ना मिलने पर संतुष्ट रहना गहरी नींद सोना तथा जरा सी आहट होते ही जाग जाना स्वामी के प्रति वफादार रहना और वीरता ये छः गुण व्यक्ति को कुत्ते से ग्रहण करने चाहिए।
सुश्रान्तोऽपि वहेत भारं शीतोष्णं न च पश्यति ।
सन्तुष्टश्चरते नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात् ।।20।।
भावार्थ- गधे से ये तीन बाते सीखे: अपना बोझा ढोना ना छोड़े, सर्दी गर्मी की चिंता ना करे और सदा संतुष्ट रहे.
व्याख्या- गधे को मुर्ख कहा गया है। मुर्खता के प्रतीक के तौर पर गधे का मुखौटा प्रयोग किया जाता है किंतु व्यक्ति को जान लेना चाहिए कि उसमें भी तीन गुण हैं और बुद्धिमान को चाहिए कि गधे से यह तीन गुणों का ग्रहण करना चाहिए।
1- अपने काम से मुंह ना मोड़ना अर्थात आलस्य प्रमाद ना करना।
2- कर्तव्य पूर्ति में सर्दी गर्मी का बहाना ना बनाना।
3- जो मिल जाए उसी में संतोष रहना।
एतान् विंशतिगुणानाचरिष्यति मानवः ।
कार्यावस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति ।।21।।
भावार्थ- जो व्यक्ति इन बीस गुणों पर अमल करेगा वह जो भी करेगा सफल होगा .
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति इन 20 गुणों को अपने जीवन में अपना लेगा वह कभी किसी से पराजित नहीं होगा। उसे हर कार्य में सफलता प्राप्त होगी। आज हम देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति सफल नहीं है और सफलता के शिखरों को छू रहे हैं वे अवश्य गुणवान है। गुण ही व्यक्ति को यशवान बनाते हैं जिनमें गुण नहीं है कहा जाता है कि वे इन जानवरों से भी गए गुजरे हैं।