चाणक्य नीति
गुरुरग्निर्द्वि जातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः ।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ।। 1 ।।
Agni is the worshipable person for the twice born; the brahmana for the other castes; the husband for the wife; and the guest who comes for food at the midday meal for all.
भावार्थ- स्त्रियों का गुरु पति है . अथिति सब का गुरु है ,ब्राह्मण ,क्षत्रिय,और वैश्य का गुरु अग्नि है तथा चारों वर्णो का गुरु ब्राह्मण है-
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि क्षत्रियों और वैश्य का गुरु अग्नि है किंतु ब्राह्मण चारों वर्णों का गुरु है। स्त्री का गुरु उसका पति है एवं अभ्यागत सबका गुरु है। अभ्यागत उसे कहते हैं जो गृहस्थी के घर में अचानक आता है उसका कोई स्वार्थ नहीं होता है तो वह अपना अतिथेय का कल्याण चाहने वाला होता है अतः एवं वह सबका गुरु है।
यथा चतुर्भिः कनकं पराक्ष्यते निघर्षणं छेदनतापताडनैः ।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा ।।2 ।।
As gold is tested in four ways by rubbing, cutting, heating and beating - So a man should be tested by these four things: his renunciation, his conduct, his qualities and his actions.
भावार्थ- जिस प्रकार घिसने ,काटने ,आग मन तापने -पीटने ,इन चार उपायों से दोने की परख की जाती है ,वैसे ही त्याग, शील , गुण ,और कर्म इन चारों से मनुष्य की पहचान होती है -
व्याख्या- जिस प्रकार सोने के खरे और खोटे की पहचान उसके घिसने, काटने, तपाने और कूटने से की जाती है उसी प्रकार मनुष्य की परीक्षा दान, शील, और गुण आचरण से की जाती है। जो इन चारों में खरा है वास्तव में वही इंसान कहलाने योग्य है उसे ही सदा खरा कहां जाएगा।
तावद्भयेन भेतव्यं यावद् भयमनागतम् ।
आगतं तु भयं वीक्ष्यं प्रहर्तव्यमशंकया ।।3 ।।
A thing may be dreaded as long as it has not overtaken you, but once it has come upon you, try to get rid of it without hesitation.
भावार्थ- भय से तभी तक डरना चाहिए जब तक भय आय नहीं ,आए हुए भय को देखकर निशंक होकर प्रहार करना चाहिए ,अर्थात उस भय की परवाह नहीं करनी चाहिए .
व्याख्या- कुछ व्यक्ति आपत्तिअथवा संकट की आशंका से ग्रसित रहते हैं भयभीत रहते हैं। ऐसे लोग समय से पूर्व भी सोच समझ कर अपनी उर्जा एवं शारीरिक शक्ति नष्ट कर देते हैं जबकि अभी यह भी स्पष्ट नहीं होता कि वह संकट उसके समक्ष आएगा भी या नहीं। हो सकता है कि जिस भय से ग्रस्त हैं उससे उनका सामना ही ना हो लेकिन फिर भी यदि उनकी आशंका सिद्ध हो जाए और भय सामने आ जाए
तब उनका सामना करने की स्थिति में वह नहीं होते। ऐसे लोगों के विषय में ही आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जब तक भय सामने ना जाए उस से डरना नहीं चाहिए और जब सामने आए तो द्रढ़तापूर्वक पूरी शक्ति से उसका सामना करना चाहिए कहने का तात्पर्य यही है कि संकट दुख और विपत्ति में व्यक्ति को घबराना नहीं चाहिए और डटकर उसका सामना करना चाहिए।
एकोदरसमुद् भूता एकनक्षत्रजातकाः ।
न भवन्ति समाः शीला यथा बदरिकण्टकाः ।।4 ।।
Though persons are born from the same womb and under the same stars, they do not become alike in disposition as the thousand fruits of the baradari tree
भावार्थ- एक ही माता क पेट से और एक ही नक्षत्र मैं जन्मे लेने वाली संतान सामान गुण और शील वाली नहीं होती, जैसे बेर के कांटे .
व्याख्या- आचार्य चाणक्य की यह बात अक्षरश: सही है। एक ही नक्षत्र में कोई स्त्री जुड़वा बच्चों को जन्म दे तो यह कदापि नहीं माना जा सकता कि वे गुण और स्वभाव में एक जैसे होंगे। एक साधु हो सकता है दूसरा मूर्ख। किसी बेरी वृक्ष पर जैसे एक ही समय में फल आता है उसी नक्षत्र में उसी वृक्ष पर कांटा भी उगता है कहा जाता है कि यह सब पूर्व जन्म के कर्मों का फल होता है।
निःस्पृहो नाधिकारी स्यान्नाकामो मण्डनप्रियः ।
नाऽविदग्धः प्रियंब्रूयात् स्पष्टवक्ता न वञ्चकः ।।5 ।।
He whose hands are clean does not like to hold an office; he who desires nothing cares not for bodily decorations; he who is only partially educated cannot speak agreeably, and he who speaks out plainly cannot be a deceiver.
भावार्थ- जिसका जिस वस्तु मैं लगाव नहीं है , उसी वस्तु का वह अधिकारी नहीं है . यदि कोई व्यक्ति सौंदर्य प्रेमी नहीं होगा तो श्रृंगार शोभा के प्रति उसकी आसक्ति नहीं होगी . मुर्ख व्यक्ति प्रिय और मधुर वचन नहीं बोल पाता और स्पष्ट वक्ता कभी धोकेबाज ,धूर्त या मक्कार नहीं होता .
व्याख्या- कोई विरला ही होता है जो अधिकार पाकर मन कि कोई आकांक्षा ना पाले। अधिकार पाकर व्यक्ति में बहुत सी इच्छाएं जागृत हो जाती हैं। स्वार्थ, लोभ, भोग आदि उसकी बहुत सी इच्छाएं सिर उठा लेती हैं। उसी प्रकार श्रृंगार का रसिया अकामी नहीं होता। उसमें कामीपन अवश्य होगा। इसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति स्वभाव से ही कटुवक्ता होता है। स्पष्ट कहने वाला दगाबाज और धूर्त नहीं होता यह उसका स्वभाव है।
मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्या अधनानां महाधनाः ।
वरांगना कुलस्त्रीणां सुभगानां च दुर्भगा ।।6 ।।
The learned are envied by the foolish; rich men by the poor; chaste women by adulteresses; and beautiful ladies by ugly ones.
भावार्थ- मूर्खों के पंडित,दरिद्रों के धनी ,विधवाओं की सुहागिनें और वैश्यों की कुल-धर्म रखने वाली पतिव्रता स्त्रियाँ शत्रु होती है .
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य ने स्वभावगत शत्रुता वाली बात कही है जो एकदम सत्य है। मूर्ख विद्वानों को सदा अपना शत्रु समझते हैं और उनसे द्वेष करते हैं। इसी प्रकार निर्धन धनवानों से द्वेष रखते हैं। कुलीन एवं चरित्रवान स्त्रियां वेश्याओं से घृणा करती हैं और उनसे द्वेष रखती हैं। विधवाओं को सधवा नहीं भातीं। भले ही स्पष्ट ना कहें मगर उनके मन में सुभावगत द्वेष की भावना आ जाती है।
आलस्योपगता विद्या परहस्तगतं धनम् ।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम् । ।7 ।।
Indolent application ruins study; money is lost when entrusted to others; a farmer who sows his seed sparsely is ruined, and an army is lost for want of a commander.
भावार्थ- आलस्य से ( अध्ययन न करना ) विद्या नष्ट हो जाती है ,दूसरे के पास गई स्त्री ,बीज की कमी से खेत और सेनापति के न होने से सेना नष्ट हो जाती है .
व्याख्या- इस श्लोक का एकदम स्पष्ट है। आलस्य विद्या को हस्त गत कर देता है अर्थात खा जाता है। आलस्य प्रिय मूढ़ व्यक्ति विद्या का अभ्यास नहीं कर पाता। दूसरों के हाथ में गया हुआ धन भी व्यक्ति के समय पर काम नहीं आता। उसका होना ना होना बराबर है। पता नहीं कब मिलेगा अथवा मिलेगा भी या नहीं। इसी प्रकार जिस खेत में कम बीज डाला जाता है वह खेत नहीं फलता फूलता। कुछ बीज मर जाते हैं कुछ को पच्छी चुंग लेते हैं।नायक बिहीन सेना दिशा निर्देशन के अभाव में सदा क्षेत्र में मारी जाती हैं अथवा परास्त होकर भागती है।
अभ्यासाध्दार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते ।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते । ।8 ।।
Learning is retained through putting into practice; family prestige is maintained through good behavior; a respectable person is recognized by his excellent qualities; anger is seen in the eyes.
भावार्थ- विद्या अभ्यास से आती है ,सुशील स्वभाव से कुल का बड़प्पन होता है ,श्रेठतत्व की पहचान गुणों से होती है और क्रोध का पता आँखों से लगता है-
व्याख्या- विद्या की प्राप्ति निरंता अभ्यास द्वारा ही संभव है मूढ़ व्यक्ति भी अभ्यास द्वारा सुजान अर्थात यानी हो जाते है। इस संदर्भ में एक दोहा प्रचलित है।
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान।।
कुल की स्थिरता, कुल का यस और गौरव उत्तम गुण-कर्म और स्वभाव से व्यक्त होता है। कौन व्यक्ति किस कुल से संबंधित है अर्थात कितना कुलीन है इसका पता उसके गुणों से चलता है। उसके कर्म एवं स्वभाव से चलता है। आर्य की पहचान उसके श्रेष्ठ गुणों से होती है और क्रोध का ज्ञान नेत्रों द्वारा हो जाता है। कोई व्यक्ति यदि क्रोध में है वह भले ही मुख से कुछ ना बोले किंतु उसकी नेत्रों से स्पष्ट हो जाता है कि वह क्रोध में है।
वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते ।
मृदुना रक्ष्यते भूपः सत्स्त्रिया रक्ष्यते गृहम् ।।9।।
Religion is preserved by wealth; knowledge by diligent practice; a king by conciliatory words; and a home by a dutiful housewife. भावार्थ- धर्म की रक्षा शर्म से ,विद्या की रक्षा निरंतर साधना से, राजा की ररक्षा मृदु स्वाभाव से और पतिव्रता स्त्रियों से घर की रक्षा होती है.
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं की धन से धर्म की रक्षा होती है। धन के बिना कोई भी धार्मिक अनुष्ठान पूरा नहीं हो पाता। धनहीन धर्म की रक्षा करने में समर्थ नहीं होता। विशेषताओं के चलते उसे कुछ ऐसे कार्य भी करने पड़ जाते हैं जो धर्म के विरुद्ध होते हैं इसलिए धर्म की रक्षा के लिए धन अनिवार्य है। योग अर्थात धर्म विधान में कौशल का। कोई व्यक्ति चाहे वह कितना भी विद्वान क्यों ना हो यदि वह व्यवहार कुशल नहीं है तो उसकी विद्या व्यर्थ है।
योग में यम नियम आते आते हैं जिसका सीधा संबंध व्यक्ति के आचरण से है जिसके पास अच्छा आचरण नहीं है उसकी विद्या भी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। मृदुलता से राजा की रक्षा होती है यदि राजा अन्याय कठोर और अहंकारी है तो एक ना एक दिन उसका विनाश निश्चित है। उसके बहुत शत्रु होते हैं
जो समय पढ़ते ही उसका अहित करने की ताक में रहते हैं और क्योंकि ऐसे दुष्ट राजा के हितैषी बहुत कम होते हैं इसलिए उनके शत्रुओ को उचित अवसर प्राप्त हो जाता है और इस प्रकार वह राजा नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार घर की रक्षा स्त्री के सतीत्व पर निर्भर करती है। जिस घर में पवित्रता, नेक आचरण वाली सुघड़ नारि निवास करती है उस घर की रक्षा स्वयं देवता करते हैं।
अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रमाचारमन्यथा ।
अन्यथा वदता शांतंलोकाःक्लिश्यन्ति चाऽन्यथा ।।10 ।।
Those who blaspheme Vedic wisdom, who ridicule the life style recommended in the satras, and who deride men of peaceful temperament, come to grief unnecessarily.
भावार्थ- वेद पंडित्व व्यर्थ है , शात्रों का ज्ञान व्यर्थ है , ऐसा कहने वाले स्वयं ही व्यर्थ है . व्यर्थ में दुखी होते है , जबकि वेदों और शास्तों का ज्ञान व्यर्थ नहीं है.
व्याख्या- हमारे प्राचीन ऋषिओं वर्षो की साधना के बाद वेद शास्त्रों के रूप में जिस तत्व ज्ञान का प्रकाश फैलाया तथा जनसाधारण के कल्याण के लिए जिन आचरणीय नियमों का विधान किया, उस तत्व ज्ञान और आचर विचार की निंदा करने वाले धार्मिक लोग मूर्ख हैं। तो यह उन ऋषि मुनियों की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला और घोर अधार्मिकता फैलाने वाला कार्य है
जो महान दंडनीय है। तो ऐसे व्यक्ति जो वेदों एवं शास्त्रों की निंदा कर अधर्म का पक्ष मजबूत करते हैं वे सदा निंदनीय एवं ताज्य हैं। समाज के हितों के भक्षक ऐसे लोग उस परम सत्ता के कोप का शिकार हैं और जन्म जन्मांतर तक विभिन्न योनियों में भटकते रहते हैं अतः समाज को चाहिए कि ऐसे नास्तिक लोगों का बहिष्कार करें।
दारिद्र्यनाशनं दान शीलं दुर्गतिनाशनम् ।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी ।।11 ।।
Charity puts and end to poverty; righteous conduct to misery; discretion to ignorance; and scrutiny to fear.
भावार्थ- दरिद्रता का नाश दान से , दुर्गति का नाश शालीनता से , मूर्खता का नाश सद्बुद्धि से और भय का नाश अच्छी भावना से होता है .
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि दान से दरिद्रता का नाश होता है। कुछ लोग दान के महत्व को नहीं समझते और इस कार्य को भी व्यर्थ समझते हैं जबकि प्रत्येक धर्म में दान का विशेष महत्व बताया गया है। कुछ लोग नाम और यस की कामना से दान करते हैं उनका दान व्यर्थ है। धन खर्च करके कुछ पाने की कामना करना सीधा-सीधा व्यापार है। दान तो बिना स्वार्थ के दूसरे की हित की भावना में रखकर किया जाता है। ऐसे दान से व्यक्ति का धन बढ़ता है। धनी और अधिक धनी हो जाता है एवं दरिद्र धनवान हो जाता है।
इस श्लोक के दूसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि शील अर्थात उत्तम गुण,उत्तम आचरण, मोहक स्वभाव से व्यक्ति की दुर्गति का नाश होता है अर्थात ऐसे व्यक्ति को कहीं भी अपमानित नहीं होना पड़ता है। प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक सभा में उसे तवज्जो दी जाती है। प्रज्ञा अथवा बुद्धि अज्ञानता का हरण कर लेती है। भावना से भ्रम का नाश होता है अर्थात ईश्वर के प्रति निष्ठा व्यक्ति के भय का नाश कर देती है।अतः व्यक्ति को ईश्वर से अटूट विश्वास रखना चाहिए।
नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः ।
नास्ति कोपसमो वहि नास्ति ज्ञानात्परं सुखम् ।।12 ।।
There is no disease (so destructive) as lust; no enemy like infatuation; no fire like wrath; and no happiness like spiritual knowledge. - Chanakya
भावार्थ- काम वासना के सामान दूसरा रोग नहीं , मोह के सामान शत्रु नहीं, क्रोध के सामान आग और ज्ञान से बढ़कर सुख नहीं .
व्याख्या- काम जैसी दूसरी कोई व्याधि ही नहीं। कामवासना एक भयंकर रोग है। इससे व्यक्ति का न केवल चरित्र का पतन होता है बल्कि शारीरिक एवं आत्मिक पतन भी हो जाता है। कामोध पुरुष कहीं भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। दूसरे कितने भी दोष मनुष्य में क्यों ना हो वे सब बर्दाश्त योग्य हो सकते हैं लेकिन व्यक्ति का चरित्र गिरा होना कोई सहन नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति से दूसरे लोग बदनामी के डर से संबंध भी नहीं रखना चाहते।
इस श्लोक के दूसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मोह जैसा कोई शत्रु नहीं। मोह में फंसा व्यक्ति ना इस लोक में सुखी रहता और ना परलोक में। उसे कहीं चैन नहीं मिलता। तो मोह के रहते साधना नहीं होती और साधना बिना मोक्ष नहीं मिलता। अतः व्यक्ति को मोह का त्याग करना चाहिए।
इस श्लोक तीसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि क्रोधाग्नि से बढ़कर कोई अग्नि नहीं है। क्रोध की आग में झुलसा व्यक्ति कब क्या कर गुजरे वह स्वय भी नहीं जानता। क्रोध की आग में झुलसता व्यक्ति हत्या तक कर बैठता है। ज्ञान अर्थात आत्मज्ञान परमसुख है। जिसने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया उसके लिए फिर कोई सुख प्राप्त करना बाकी नहीं रहता अतः व्यक्ति को आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
जन्ममृत्युं हि यात्येको भुनक्त्येकं शुभाशुभम् ।
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम् ।।13 ।।
A man is born alone and dies alone; and he experiences the good and bad consequences of his karma alone; and he goes alone to hell or the Supreme abode.
भावार्थ- मनुष्य अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है , वह अकेला ही अपने अच्छे -बुरे कर्मो को भोगता है परम पद को पता है .
ब्याख्या- पिछले श्लोक में आचार्य चाणक्य ने मोह के संदर्भ में कहां है। उसी कड़ी का यह श्लोक है। मोह बंधन मोह बंधन में फसा व्यक्ति को इस श्लोक की गहराई को समझना चाहिए। आचार्य कहते हैं कि व्यक्ति जिस प्रकार अकेला जन्म लेता है उसी प्रकार अकेला मरता है अर्थात मृत्यु के बाद की यात्रा वह अकेला ही करता है। उसके साथ कोई संगी साथी नहीं होता किसी के साथ वह भले ही कितना मोह क्यों ना रखें।
इस यात्रा में व्यक्ति के साथ उसके कर्म चलते हैं। अच्छे कर्मों के द्वारा उसकी यह यात्रा सुखद होती है। पुत्र पत्नी के मुंह में पकड़कर जो व्यक्ति बुरे कार्य करता है उसकी यात्रा कठिन और दुखदाई होती है। बुरे कर्म करके व्यक्ति दूसरे के लिए भले ही सुख एकत्रित करें किंतु अपनी मृत्यु उपरांत यात्रा में वह कांटे वो लेता है। जो व्यक्ति अच्छे कार्य करता है उसे मोक्ष मिलता है। मोक्ष बांटा नहीं जा सकता।
तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम् ।
जिताक्षस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत् ।।14 ।।
Heaven is but a straw to him who knows spiritual life (Krsna consciousness); so is life to a valiant man; a woman to him who has subdued his senses; and the universe to him who is without attachment for the world.
भावार्थ- ब्रह्मज्ञानियों की दृष्टि में स्वर्ग तिनके के सामान है , शूरवीर की दृष्टि में जीवन तिनके के सामान है , इंद्रजीत के लिए स्त्री तिनके के सामान है ,और जिसे किसे भी वस्तु की कामना नहीं है,उसकी दृष्टि में यह सारा संसार क्षणभंगुर दिखाई देता है. वह तत्व ज्ञानी हो जाता है .
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं की ब्रह्म ज्ञानी के लिए स्वर्ग तिनके के समान है। वस्तुतः यह बात इसलिए कही गई है कि ब्रह्म ज्ञानी स्वर्ग नर्क की भावना से ऊपर उठ जाता है। शूरवीर के लिए जीवन का कोई मोल नहीं होता बल्कि वह अपनी आन बान और शान के लिए जीता है। अपनी आन बान और शान के लिए वह तो जीवन कुर्बान कर सकता है। जितेंद्रिय के लिए स्त्री तिनके के समान हैं जिसने इंद्रियों को वश में किया है वह सुंदर स्त्री को देखकर भी विचलित नहीं होता। उसका मन नहीं डोलता उसकी इंद्रियां उसके काबू में रहती हैं।
असहमी व्यक्ति कहीं भी बैठ सकता है। स्त्री सुंदर है या असुंदर वह इसका भी विचार नहीं करता। कई मामलों में ऐसे असहमी व दुष्ट लोग रिश्तो की मर्यादा को भी भंग कर देते हैं। लेकिन जितेंद्रीय के लिए नारी तृणमूल है। आगे आचार्य चाणक्य कहते हैं कि निर्मोही के लिए यह संसार ही तृणमूल है। जिसकी कोई इच्छा नहीं जो संतोषी है उसे कोई लोभ लालच नहीं होता।
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च
व्यधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च ।।15 ।।
Learning is a friend on the journey; a wife in the house; medicine in sickness; and religious merit is the only friend after death.
भावार्थ- विदेश मैं विद्या ही मित्रः होती है ,घर मैं पत्नी मित्र होती है , रोगियों के लिए ओषधि मित्र होती है, और मरते हुए व्यक्ति का मित्र धर्म होता है अर्थात उसके सत्कर्म होते है -
व्याख्या- विदेश प्रवास के दौरान यदि व्यक्ति बुद्धिमान है तो उसे किसी खास मित्र की आवश्यकता नहीं होती। कहने का तात्पर्य है कि विदेश में अपने विद्या बल से व्यक्ति अपने कई हितैसी और मित्र बना लेता है।
दूसरे खंड में चाणक्य कहते हैं कि घर में अर्थात स्वदेश में पुरुष की सबसे अच्छी मित्र उसकी पत्नी है। व्यक्ति को चाहिए कि छदम मित्रों के भ्रम में ना रहे और अपनी पत्नी को ही अपना सच्चा मित्र माने क्योंकि पत्नी उससे निस्वार्थ भाव से जुड़ी होती है उसके किसी स्वार्थ में भी पूरे परिवार के भले की भावना जुड़ी होती है। अतः भार्या से अच्छा मित्र कोई नहीं।
इस श्लोक के तीसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि रोगी के लिए औषधि ही उसकी सबसे बड़ी मित्र है। किसी प्रकार की सहानुभूति अथवा मीठी बातों से उसका रोग दूर नहीं होता उसका रोग औषधि से ही दूर होता है।
चौथे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मरने वाले का मित्र धर्म है। जब व्यक्ति अपनी अंतिम यात्रा पर जाता है तो उसका धर्म ही उसके साथ जाता है दूसरा कोई नहीं।
वृथा वृष्टिस्समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम् ।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपोऽदीवाऽपि च ।।16 ।।
The rain which falls upon the sea is useless; so is food for one who is satiated; in vain is a gift for one who is wealthy; a burning lamp during the daytime is useless.
भावार्थ- समुद्र मैं वर्षा का होना व्यर्थ है , तृप्त व्यक्ति को भोजन करना व्यर्थ है , धनिक को दान देना व्यर्थ है और दिन में दीपक जलाना व्यर्थ है .
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि समुद्र के लिए वर्षा का कोई महत्व नहीं यह उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे पेट भरे को भोजन पूछना, धनी व्यक्ति को दान देना अथवा सूर्य के प्रकाश में दीपक जलाना। जहां पहले से ही सब कुछ भरा पड़ा हो वहां किसी प्रकार की कोई इच्छा नहीं होती।
नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम् ।
नास्तिचक्षुः समं तेजो नास्ति धान्यसमं प्रियम् ।।17 ।।
There is no water like rainwater; no strength like one's own; no light like that of the eyes; and no wealth dearer than food grain.
भावार्थ- बादल के जल के सामान दूसरा जल नहीं है , आत्मबल के सामान दूसरा बल नहीं है , अपनी आँखों के सामान दूसरा प्रकाश नहीं है और अन्न के सामान दूसरा प्रिय पदार्थ नहीं है .
व्याख्या- वर्षा के जल जैसा दूसरा कोई जल शुद्ध नहीं होता आत्म बल की भांति दूसरा कोई बल नहीं होता आंख की भांति शरीर में दूसरी कोई तेजस्वी इंद्रिय नहीं होती और अन्न की भांति दूसरा कोई प्रिय खाद्य पदार्थ नहीं होता क्योंकि क्षुधा की पूर्ति इसी से होती है।
अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदः ।
मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्तिदेवताः ।। 18 ।।
The poor wish for wealth; animals for the faculty of speech; men wish for heaven; and godly persons for liberation.
भावार्थ- निर्धन धन चाहते है ,पशु वाणी चाहते है , मनुष्य स्वर्ग की इच्छा करते है और देवगन मोक्ष चाहते है .
व्याख्या- यह तो स्वभाविक है कि उसके पास जिस वस्तु का अभाव होता है वह वही पाने की कामना करता है धन ही धन की, चौपाए मनुष्य की बात बोलने की इच्छा रखते हैं। साधारण प्राणी स्वर्ग की कामना करता है। किंतु जो विद्या जन हैं जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त किया है वे सदा ही मोक्ष की कामना करते हैं।
स्त्येन धार्यते पृथ्वी स्त्येन तपते रविः ।
स्त्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ।।19 ।।
The earth is supported by the power of truth; it is the power of truth that makes the sunshine and the winds blow; indeed all things rest upon truth.
भावार्थ- सत्य पर पृथ्वी टिकी है, सत्य से सूर्य तपता है , सत्य से वायु बहती है , संसार के सभी पदार्थ सत्य में निहित है .
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य जी ने सत्य की महिमा बताई है। वे कहते हैं कि सत्य के वल से ही पृथ्वी स्थिर है यदि सत्य ना होता तो पृथ्वी डामाडोल हो जाती। आज पृथ्वी पर जितने पाप हो रहे हैं उनके संदर्भ में देखा जाए तो पृथ्वी की स्थिरता का श्रेय सत्य को ही जाता है। सत्य के बल पर ही सूर्य उदित होता है सत्य से ही दिन रात का महत्व है सत्य के बल से ही वायु बहती है। चाणक्य कहते हैं कि सब कुछ सत्य के बल पर ही होता है। यदि सत्य नहीं होता तो कुछ भी नहीं होता। वस्तुतः संपूर्ण ब्रह्मांड में सत्य की ही महत्ता है।
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणश्चले जीवितमन्दिरे ।
चलाऽचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः ।।20 ।।
The Goddess of wealth is unsteady (Chanchal), and so is the life-breath. The duration of life is uncertain, and the place of habitation is uncertain, but in all this inconsistent world religious merit alone is immovable.
भावार्थ- लक्ष्मी अनित्य और अस्थिर है , प्राण भी अनित्य है ,इस चलते- फिरते संसार में केवल धर्म ही स्थिर है.
ब्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि इस संसार में धर्म को छोड़कर सभी कुछ चलायमान है अर्थात आता जाता रहता है नष्ट होता है और बनता रहता है। लक्ष्मी अर्थात धन-संपत्ति चलायमान है आती जाती रहती है अर्थात जीवन चलायमान है मृत्यु और जन्म होते रहते हैं। योवन आता जाता रहता है। एक जन्म में योवन जाकर दूसरे जन्म में पुनः प्राप्त होता है। कहने का तात्पर्य यही है कि इस संसार में सभी कुछ नाशवान है किंतु धर्म का विनाश नहीं होता।
नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः ।
चतुष्पदां श्रृगालस्तु स्त्रीणां धुर्ता च मालिनी ।।21 ।।
Among men the barber is cunning; among birds the crow; among beasts the jackal; and among women, the malin (flower girl).
भावार्थ- पुरषों में नाई धूर्त होता है , पक्षियों मैं कौआ , पशुओं में गीधड़ , और स्त्रियों में मालिन धूर्त होते है.