चाणक्य नीति
आयुः कर्म च वित्तञ्च विद्या निधनमेव च ।
पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।।1।।
भावार्थ- निम्नलिखित बातें माता के गर्भ में ही निश्चित हो जाती है : व्यक्ति कितने साल जियेगा , वह किस प्रकार का काम करेगा , उसके पास कितनी संपत्ति होगी और उसकी मृत्यु कब होगी ।
व्याख्या- आचार्य का मत है कि पांच बातें जीव के गर्व में आते ही निर्धारित हो जाती हैं कि उसने कब तक जीना है उसका कर्म क्या होगा धन की स्थिति क्या होगी कितनी विद्या ग्रहण करेगा और मृत्यु कब होगी। इससे सिद्ध होता है कि सब कुछ ईश्वर के अधीन है मनुष्य का इन बातों में कोई दखल नहीं है
इसका यह अर्थ है कदापि नहीं है कि व्यक्ति पुरुषार्थ करना छोड़ दें और भाग्य के भरोसे बैठ जाए कि जब तक सब कुछ पूर्व निर्धारित है तो मैं कुछ क्यों करूं। शास्त्रों में लिखा है कि अपने पुरुषार्थ और सुकर्मों से व्यक्ति भाग्य के लेखों को भी बदल सकता है। बुद्धि ईश्वर ने इसलिए दी है कि व्यक्ति सोच समझकर नेक कर्म करें।
साधुभ्यस्ते निवर्तन्ते पुत्रामित्राणि बान्धवाः ।
ये च तैः सह गन्तारस्तध्दर्मात्सुकृतं कुलम् ।।2।।
भावार्थ- पुत्र , मित्र , सगे सम्बन्धी साधुओं को देखकर दूर भागते है , लेकिन जो लोग साधुओं का अनुशरण करते है उनमे भक्ति जागृत होती है और उनके उस पुण्य से उनका सारा कुल धन्य हो जाता है ।
व्याख्या- इस श्लोक का अर्थ यही है कि बंधु बांधव मित्र पुत्रादि परिवार में किसी के भी वियोगी हो जाने पर यह तो कहते हैं कि इसने त्याग किया अपने सुकर्मो से कुल का नाम रोशन किया किंतु कोई उससे सीख नहीं लेता।
दर्शनाध्यानसंस्पर्शर्मत्सी कूर्मी च पक्षिणी ।
शिशुपालयते नित्यं तथा सज्जनसड्गतिः ।।3।।
भावार्थ- जैसे मछली दृष्टी से , कछुआ ध्यान देकर और पंछी स्पर्श करके अपने बच्चो को पालते है , वैसे ही सज्जन पुरुषों की संगती मनुष्य का पालन पोषण करती है
व्याख्या- आचार्य चाणक्य ने इस श्लोक में उत्तम पुरुषों की संगति का महत्व बताया है। मछली अपने बच्चों का दर्शन से पालन करती है कछवी भी ध्यान से और पक्षी स्पर्श से। पक्षी अपने अंडे से ते हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं किसी प्रकार उत्तम पुरुषों के दर्शन, ध्यान एवं स्पर्श से व्यक्ति का पालन होता है उसकी भलाई होती है। उत्तम पुरुषों की सदा संगत करनी चाहिए बल्कि यह कहना ज्यादा मुनासिब होगा की संगत ही उत्तम पुरुषों की करनी चाहिए। इससे व्यक्ति का भला ही भला है।
यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः ।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते किं करिष्यति।।4।।
भावार्थ- जब आपका शरीर स्वस्थ है और आपके नियंत्रण में है उसी समय आत्म साक्षात्कार का उपाय कर लेना चाहिए क्योंकि मृत्यु हो जाने के बाद कोई कुछ नहीं कर सकता है।
व्याख्या- व्यक्ति को चाहिए कि जब तक शरीर निरोग है मृत्यु दूर है तब तक व्यक्ति को आत्म कल्याण के लिए यथासंभव प्रयत्न करना चाहिए। चलते हाथ पैर व्यक्ति को यथासंभव धर्म के कार्य करने चाहिए। दान, तीर्थ, व्रत, सत्संग, दूसरों की निस्वार्थ सेवा एवं भलाई यह ऐसे कर्म है जिनसे व्यक्ति का आत्म कल्याण होता है परलोक सुधरता है और इस लोक में भी सुखों की प्राप्ति होती है
जो व्यक्ति समय रहते यह सब नहीं करता और अचानक मृत्यु आकर दबोच लेती है तब वह क्या कर सकता है कुछ नहीं। इसलिए चाणक्य कहते हैं कि स्वास्थ्य और सामर्थ्य रहते व्यक्ति को कोई ना कोई पुरुषार्थ अवश्य कर लेना चाहिए।
Learning is like a cow of desire. It, like her, yields in all seasons. Like a mother, it feeds you on your journey. Therefore learning is a hidden treasure.
भावार्थ- विद्या अर्जन करना यह एक कामधेनु के समान है जो हर मौसम में अमृत प्रदान करती है । वह विदेश में माता के समान रक्षक अवं हितकारी होती है । इसीलिए विद्या को एक गुप्त धन कहा जाता है ।भावार्थ- विद्या अर्जन करना यह एक कामधेनु के समान है जो हर मौसम में अमृत प्रदान करती है । वह विदेश में माता के समान रक्षक अवं हितकारी होती है । इसीलिए विद्या को एक गुप्त धन कहा जाता है।
कामधेनुगुण विद्या ह्यकाले फलदायिनी ।
प्रवासे मातृसदृशी विद्या गुप्तं धनं स्मृतम् ।।5।।
भावार्थ- विद्या अर्जन करना यह एक कामधेनु के समान है जो हर मौसम में अमृत प्रदान करती है । वह विदेश में माता के समान रक्षक अवं हितकारी होती है । इसीलिए विद्या को एक गुप्त धन कहा जाता है ।भावार्थ- विद्या अर्जन करना यह एक कामधेनु के समान है जो हर मौसम में अमृत प्रदान करती है । वह विदेश में माता के समान रक्षक अवं हितकारी होती है । इसीलिए विद्या को एक गुप्त धन कहा जाता है।
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने विद्या की महत्ता पर प्रकाश डाला है। कुछ लोग कहते हैं कि अधिक पढ़ लिख कर क्या करना है विशेष तौर पर यह उन लोगों को जीतने के लिए है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि विद्या कामधेनु के समान गुण धर्म वाली है। कामधेनु नाम के संदर्भ में कहा गया है कि वह व्यक्ति की इच्छा तत्काल पूर्ण कर देती हैं इसी प्रकार विद्या का गुण धर्म है। विद्यावान अपने विद्या बल से अपनी सभी इच्छाएं पूर्ण कर लेता है।
संकटकाल में विद्या व्यक्ति को विशेष बल प्रदान करती है। विद्यावान संकटकाल में धैर्य नहीं खोता सूझबूझ और समझदारी से ऐसे कार्य करता है कि संकट का समय शीघ्र ही कट जाता है। विदेशों में विद्या मां के समान व्यक्ति का पालन करती है। विद्या बल से विद्वान व्यक्ति परदेश या विदेश में गैरों को भी अपना बना लेता है। इसलिए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि विद्या गुप्त धन है। विद्या के विषय में विभिन्न शास्त्रों में कहा गया है कि इस धन को ना कोई चुरा सकता है ना कोई छीन सकता है। व्यक्ति को अपने जीवन में पढ़ाई लिखाई को विशेष महत्व देना चाहिए।
भावार्थ- सैकड़ों गुणरहित पुत्रों से अच्छा एक गुणी पुत्र है क्योंकि एक चन्द्रमाही रात्रि के अन्धकार को भगाता है , असंख्य तारे यह काम नहीं करते ।
एकोऽपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैश्च शतैर्वरः ।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्त्रशः ।।6।।
A single son endowed with good qualities is far better than a hundred devoid of them. Though one, the moon dispels the darkness, which the stars, though numerous, cannot.भावार्थ- सैकड़ों गुणरहित पुत्रों से अच्छा एक गुणी पुत्र है क्योंकि एक चन्द्रमाही रात्रि के अन्धकार को भगाता है , असंख्य तारे यह काम नहीं करते ।
व्याख्या- गुणों से हीन एवं मूर्ख सौ पुत्रों से गुणवान और समझदार एक पुत्र अच्छा है। इसकी तुलना आचार्य चाणक्य ने चंद्रमा से की है। एक ही चंद्रमा अपनी चांदनी से पूरे विश्व को प्रकाशित कर देता है लेकिन हजारों सारे मिलकर भी संसार को रोशनी प्रदान नहीं कर सकते। पुत्र भले ही एक हो लेकिन गुणों बुद्धिमान व विद्यावान हो।
मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि तस्माज्जातमृतो वरः ।
मृतः स चाऽल्पदुःखाय यावज्जीवं जडोदहेत् ।।7।।
भावार्थ- एक ऐसा बालक जो जन्मते वक़्त मृत था , एक मुर्ख दीर्घायु बालक से बेहतर है । पहला बालक तो एक क्षण के लिए दुःख देता है , दूसरा बालक उसके माँ बाप को जिंदगी भर दुख की अग्नि में जलाता है ।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मूर्ख पुत्र सदा ही पीड़ित करने वाला होता है और अगर वह दीर्घायु हो तो यह और भी अधिक पीङा की बात है। ऐसी पुत्र से पैदा होते ही मर जाने बाला पुत्र अच्छा है। ऐसे पुत्र कुछ समय के लिए पीड़ा देता है किंतु मूर्ख संतान तो अपनी हरकतों से जीवन भर माता-पिता को कष्ट पहुंचाना है। माता-पिता सदा उसके भविष्य को लेकर चिंतित रहते हैं। कई बार ऐसी पुत्रों के माता-पिता को कहते भी सुना है कि पैदा होते ही मर जाता तो अच्छा था।
इस बात से मूर्ख पुत्र को लेकर माता-पिता की पीड़ा का अनुमान लगाया जा सकता है। पुत्र का नाम होना दुख की बात है पैदा होते ही पुत्र का मर जाना कुछ अधिक दुखदाई है किंतु इन सभी दुखों से बड़ा दुख है मूर्ख पुत्र का होना। माता पिता अक्सर यह सोचते हैं और इसी चिंता में बोलते रहते हैं कि हमारे बात का क्या होगा कौन इसकी सार संभाल करेगा वस्तुतः इसी बात से दुखी होकर और ऐसे पुत्र को संभावित कष्टों से बचाने के लिए माता पिता उसकी मृत्यु की कामना भी करते रहते हैं।
Residing in a small village devoid of proper living facilities, serving a person born of a low family, unwholesome food, a frowning wife, a foolish son, and a widowed daughter burn the body without fire.
भावार्थ- निम्नलिखित बाते व्यक्ति को बिना आग के ही जलाती है : एक छोटे गाँव में बसना जहाँ रहने की सुविधाए उपलब्ध नहीं , एक ऐसे व्यक्ति के यहाँ नौकरी करना जो नीच कुल में पैदा हुआ है , अस्वास्थय्वर्धक भोजन का सेवन करना , जिसकी पत्नी हरदम गुस्से में होती है , जिसको मुर्ख पुत्र है और जिसकी पुत्री विधवा हो गयी है ।
कुग्रामवासः कुलहीनसेवा कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या ।।
पुत्रश्च मूर्यो विधवा च कन्या विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम् ।।8।।
भावार्थ- निम्नलिखित बाते व्यक्ति को बिना आग के ही जलाती है : एक छोटे गाँव में बसना जहाँ रहने की सुविधाए उपलब्ध नहीं , एक ऐसे व्यक्ति के यहाँ नौकरी करना जो नीच कुल में पैदा हुआ है , अस्वास्थय्वर्धक भोजन का सेवन करना , जिसकी पत्नी हरदम गुस्से में होती है , जिसको मुर्ख पुत्र है और जिसकी पुत्री विधवा हो गयी है ।
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य श्री हैं उन छह कारणों पर प्रकाश डाला है जो बिना अग्नि के ही मनुष्य को जीवन भर जलाते रहते हैं। पहला कारण है कुग्राम में रहना जब व्यक्ति को किसी ऐसे गांव में रहना पड़ता है जहां आजीविका के उत्तम साधन ना हो मिलनसार लोग ना हो जो सुख दुख में एक दूसरे का साथ दें जहां सदा ही कलह है होती रहती है वहां रहने वाला सज्जन पुरुष मन ही मन में कुढ़ता रहता है अर्थात ऐसी लोगों के बीच रहने की वेदना उसे भीतर ही भीतर जलाती रहती है।
दूसरा कारण कुलहीन की सेवा- जब किसी व्यक्ति को मजबूरी बस किसी नीच कुल की सेवा करनी पड़े तो यह उसके लिए बड़े दुख और वेदना की बात होती है यह बात भी सज्जन व्यक्ति को भीतर ही भीतर जलाती रहती है
तीसरा कारण कुभोजन- कठोर परिश्रम करने के बाद भी जब व्यक्ति को अच्छा भोजन ना मिले तो भी उसे आत्मिक कष्ट पहुंचता है और यह बात भी उसे भीतर ही भीतर जलाती रहती है।
चौथा कारण क्रोधमुखी भार्या- उसकी पत्नी क्रोधी स्वभाव की और कर्कसा हो जो अपने पति की सेवा ना करें उसके कार्यों में सहयोग ना करें बात साथ में कलह करने वाली हो ताने देने वाली हो ऐसे व्यक्तिगत जीवन जीना दुश्वार हो जाता है यह बंधन है ऐसा होता है कि जीवन भर निभाना होता है अतः व्यक्ति ऐसी पत्नी के साथ रहते हुए जीवन भर चलता रहता है।
पांचवा कारण मूर्ख पुत्र का होना- मूर्ख पुत्र के संदर्भ में पूर्व कहे श्लोक में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। छठा कारण कन्या का विधवा हो जाना व्यक्ति के जीते जी उसकी पुत्री विधवा हो जाए यह उसके लिए बहुत दुःख पहुंचाने वाली बात है उसके भविष्य को लेकर वह सदा चिंता करता रहता है। पहले विधवाओं का पुनर्विवाह नहीं होता था और भी पूरा जीवन घुट-घुट के काटती रहती थी पिता देखता रहता था किंतु अपनी पुत्री का कष्ट दूर ना कर पाने की स्थिति में जीवन भर इस दुख की आग में जलता रहता था।
What good is a cow that neither gives milk nor conceives? Similarly, what is the value of the birth of a son if he becomes neither learned nor a pure devotee of the Lord?
भावार्थ- वह गाय किस काम की जोना तो दूध देती है ना तो बच्चे को जन्म देती है । उसी प्रकार उस बच्चे का जन्म किस काम का जो ना ही विद्वान हुआ ना ही भगवान का भक्त हुआ ।
किं तया क्रियते धेन्वा या न दोग्ध्री न गर्भिणी ।
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान्न भक्तिमान् ।।9।।
भावार्थ- वह गाय किस काम की जोना तो दूध देती है ना तो बच्चे को जन्म देती है । उसी प्रकार उस बच्चे का जन्म किस काम का जो ना ही विद्वान हुआ ना ही भगवान का भक्त हुआ ।
व्याख्या- पुत्र गुणवान तो होना ही चाहिए। जिसका पुत्र ना बुद्धिमान हो शूरवीर और ना धार्मिक प्रवृत्ति का हो उसका कुल उसी प्रकार अंधकार ग्रस्त रहता है जैसे चंद्रमा से रहित रात्रि। हिंदू मतानुसार गाय पूजनीय है व्यक्ति उसकी सेवा करता है बदले में उससे दूध प्राप्त करता है।
प्रजनन करके गाय अपने पालक के पशुधन को बढ़ाती है लेकिन यदि किसी के पास ऐसी गाय हो जो ना तो दूध देती हो और ना ही गर्भ धारण करके अपने पालक के पशुधन को बढ़ोतरी कर सके तो उसका क्या लाभ है। कहा जाता है कि अपने पालक के लिए वह भोज तुल्य है। इसी कारण किसी के घर में गुणहीन विद्याहीन अधर्मी पुत्र पैदा हो जाए तो वह भी अपने पिता के लिए निरर्थक है बोझ है।
When one is consumed by the sorrows of life, three things give him relief: offspring, a wife, and the company of the Lord's devotees.
भावार्थ- जब व्यक्ति जीवन के दुख से झुलसता है उसे निम्नलिखित ही सहारा देते है : पुत्र और पुत्री , पत्नी और भगवान के भक्त ।
संसारतापदग्धानां त्रयो विश्रान्तेहेतवः ।
अपत्यं च कलत्रं च सतां सड्गतिरेव च ।।10।।
भावार्थ- जब व्यक्ति जीवन के दुख से झुलसता है उसे निम्नलिखित ही सहारा देते है : पुत्र और पुत्री , पत्नी और भगवान के भक्त ।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य ने यह बड़ी ही सत्य बात कही है कि यूं तो संसार के जमीनों के चलते प्रत्येक व्यक्ति दग्ध है परेशान है किंतु यदि निम्न तीन बातें उसके जीवन में है तो उनसे ही उसे असीम शांति प्राप्त होती है। पहला बुद्धिमान, धार्मिक, गुणवान और योग्य पुत्र का होना यह किसी भी व्यक्ति के लिए उपहार तुल्य है। इससे व्यक्ति के लोक परलोक दोनों सुधरते हैं।
अच्छा पुत्र इस जन्म में तो सुख प्रदान करता ही है व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान आदि करके उसे तृप्त करता है। दूसरा पवित्रता स्त्री का होना। प्राय देखा जाता है की बाहर के संघर्षों से जूझता हुआ दिन भर के परिश्रम से थका मादा पति जब घर लौटता है तो अपनी पत्नी का मुस्कुराता चेहरा देखकर वह दिन भर की थकान भूल जाता है।
सारे दिन विभिन्न संघर्षों और वाद-विवाद आदि की जो पीड़ा उसने सही है वह एक पल में समाप्त हो जाती है। तीसरा सज्जनों की संगति। सज्जनों की संगति व्यक्ति को बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। सज्जनों के साथ बैठकर उसके ज्ञान में बढ़ोतरी होती है। वह अपनी समस्याए उन्हें बता कर समाधान कर लेता है। साधु संग ही मनुष्य को सुख देने वाला है।
Kings speak for once, men of learning once, and the daughter is given in marriage once. All these things happen once and only once.
भावार्थ- यह बाते एक बार ही होनी चाहिए ; राजा का बोलना , विद्वान व्यक्ति का बोलना और लड़की का ब्याहना ।
सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः ।
सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत् ।।11।।
भावार्थ- यह बाते एक बार ही होनी चाहिए ; राजा का बोलना , विद्वान व्यक्ति का बोलना और लड़की का ब्याहना ।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य ने बातों पर प्रकाश डाला है जो एक ही बार होती हैं। उदाहरण के तौर पर राजा एक ही बार आज्ञा देता है और सेवकों और प्रजा को उसका पालन करना होता है। जो बार-बार आज्ञा दें और सेवकगण उनका पालन ना करें तो वह कहां का राजा? एक ही बार में जब राजा की आज्ञा का पालन नहीं होता तो वह दंड देता है।
इसी प्रकार विद्याजन अर्थात पंडित भी एक बार ही बोलते हैं जो बात को समझ लेता है वही लाभ में रहता है जो लापरवाह होगा उसकी बात नहीं समझते वह वचनामृत से वंचित रह जाते हैं चाणक्य कहते हैं कि कन्यादान भी एक ही बार होता है और एक ही पात्र को होता है। कोई भी व्यक्ति एक ही कन्यादान बार-बार नहीं कर सकता यह शास्त्र समस्त विधान है। यह तीनों बातें एक ही बार होती हैं।
Religious austerities should be practiced alone, study by two, and singing by three. A journey should be undertaken by four, agriculture by five, and war by many together.
भावार्थ- जब आप तप करते है तो अकेले करे अभ्यास करते है तो दुसरे के साथ करे | गायन करते है तो तीन लोग करे । कृषि चार लोग करे । युद्ध अनेक लोग मिलकर करे ।
एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः ।
चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं पंचभिर्बहुभी रणम् ।।12।।
भावार्थ- जब आप तप करते है तो अकेले करे अभ्यास करते है तो दुसरे के साथ करे | गायन करते है तो तीन लोग करे । कृषि चार लोग करे । युद्ध अनेक लोग मिलकर करे ।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि कब व्यक्ति को अकेले ही करना चाहिए। अकेला व्यक्ति ही ध्यान लगा सकता है। दो व्यक्ति एक ही स्थान पर तप नहीं कर सकता क्योंकि उनका एक दूसरे के कारण ध्यान भंग रहेगा पठन-पाठन दो के बीच अच्छा होता है।
दोनों ही अपना स्मरण किया पाठ एक दूसरे को सुना कर सही गलत की पुष्टि कर सकते हैं और एक दूसरे की त्रुटियों से अवगत करा सकते हैं। गायन तीन के बीच चाणक्य ने उचित कहा है किंतु तीन व्यक्तियों के लिए यात्रा को वर्जित वजह बताते हैं। यात्रा में चार को होना चाहिए। खेती में पांच जनों को लगना चाहिए। युद्ध में जितने व्यक्ति हो कम हैं।
She is a true wife who is clean (suci), expert, chaste, pleasing to the husband, and truthful.
भावार्थ- वही अच्छी पत्नी है जो शुचिपूर्ण है , पारंगत है , शुद्ध है , पति को प्रसन्न करने वाली है और सत्यवादी है।
सा भार्या या शुचिर्दक्षा सा भार्या या पतिव्रता ।
सा भार्या या पतिप्रीता साभार्या सत्यवादिनो ।।13।।
भावार्थ- वही अच्छी पत्नी है जो शुचिपूर्ण है , पारंगत है , शुद्ध है , पति को प्रसन्न करने वाली है और सत्यवादी है।
व्याख्या- इस श्लोक में चाणक्य ने बताया है कि पत्नी कहलाने की अधिकारी कौन है वह जो मन, कर्म और वचन से पवित्र है पवित्रता है, पति के साथ प्रीत रखने वाली और सत्य बोलने वाली है।
अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शुन्यास्त्वबांधवाः ।
मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता ।।14।।
भावार्थ- जिस व्यक्ति के पुत्र नहीं है उसका घर उजाड़ है । जिसके कोई सम्बन्धी नहीं है उसकी सभी दिशाए उजाड़ है । मुर्ख व्यक्ति का हृदय उजाड़ है । निर्धन व्यक्ति का सब कुछ उजाड़ है ।
व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक में आचार्य चाणक्य ने दरिद्रता को सबसे अधिक बुरा कहां है। पुत्र ना हो तो घर सूना, बंधु बांधव ना हो तो दसों दिशाएं सुनी मूर्ख का ह्रदय संवेदनहीन होता है मगर चाणक्य कहते हैं कि जो मूर्ख भी ना हो अर्थात बुद्धिमान हो बंधु बांधव और पुत्र मित्र वाला हो परंतु दरिद्र हो तो उसके लिए यह संसार ही सुना है अतः व्यक्ति को चाहिए धनार्जन करें।
अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम् ।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृध्दस्य तरुणी विषम् ।।15।।
भावार्थ- जिस अध्यात्मिक सीख का आचरण नहीं किया जाता वह जहर है । जिसका पेट ख़राब है उसके लिए भोजन जहर है । निर्धन व्यक्ति के लिए लोगो का किसी सामाजिकया व्यक्तिगत कार्यक्रम में एकत्र होना जहर है ।
व्याख्या- यदि निरंतर अभ्यास ना किया जाए तो शास्त्र विष के समान है। इससे व्यक्ति अधकचरी जानकारी लेकर इधर-उधर अपनी विदांता का बखान करता फिरता है और उपहास का पात्र बनता है। अतः व्यक्ति को निरंतर अभ्यास द्वारा अपने ज्ञान को परिपक्व करते रहना चाहिए। किसी को अजीर्ण हो अर्थात पेट खराब हो ऐसे में यदि वह जीभ पर नियंत्रण ना रखकर भोजन करता है तो वह भोजन उसके लिए विष के समान है।
चाणक्य कहते हैं कि दरिद्र के लिए सभा विष के समान है। सच है किसी भी सभा में धनहीन व्यक्ति की कोई पूछ नहीं होती चाहे वह गुणी ही क्यों ना हो। लोग उसकी बात नहीं सुनना चाहते अथवा उसकी बात को कोई महत्व ही नहीं देते। जबकि धनवान व्यक्ति भले ही मूर्ख हो उसकी बात को लोग ध्यान से
सुनते हैं। इस संदर्भ में एक कहावत है
जिसके घर दाने उसके न्याने भी स्याने
जिसके घर नहीं दाने उसके स्याने भी न्याने।
देखा गया है कि कुछ लोग वृद्धा अवस्था में अपनी आयु से बहुत कम आयु बाली स्त्री से विवाह कर लेते हैं और उसे संतुष्ट नहीं कर पाते । ऐसे में स्त्री के कदम बहक जाते हैं। तब अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती है। यहां तक की पति हंता तक हो जाती है। ऐसे भी कई मामले प्रकाश में आए हैं।
That man who is without religion and mercy should be rejected. A guru without spiritual knowledge should be rejected. The wife with an offensive face should be given up, and so should relatives who are without affection.
भावार्थ-जिस व्यक्ति के पास धर्म और दया नहीं है उसे दूर करो । जिस गुरु के पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं है उसे दूर करो । जिस पत्नी के चेहरे पर हरदम घृणा है उसे दूर करो । जिन रिश्तेदारों के पास प्रेम नहीं उन्हें दूर करो ।
त्यजेदर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत् ।
त्यजेत्क्रोधमुखीं भार्यान्निः स्नेहानबंधवांस्त्यजेत् ।। 16।।
भावार्थ-जिस व्यक्ति के पास धर्म और दया नहीं है उसे दूर करो । जिस गुरु के पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं है उसे दूर करो । जिस पत्नी के चेहरे पर हरदम घृणा है उसे दूर करो । जिन रिश्तेदारों के पास प्रेम नहीं उन्हें दूर करो ।
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि व्यक्ति को किन किन का त्याग कर देना चाहिए ।
दयाहीन धर्म - जिस धर्म में दया का अभाव है जो सदा हिंसा, मारकाट, लड़ाई दंगे आदि को प्रेरित करें अथवा प्राणी मात्र पर दया करने का विरोध करें ऐसे धर्म को व्यक्ति को चाहिए कि त्याग दें।
विद्याहीन गुरु- जिस गुरु के पास विद्या नहीं है उस गुरु को त्याग कर व्यक्ति को चाहिए ऐसे गुणी एवं विद्यावान की शरण में जाएं और अपने जी जीवन को सार्थक करें।
क्रोधित भार्या- जो पत्नी सदा ही क्रोध का प्रदर्शन करें जिसमें प्यार ना हो जिसकी दृष्टि में पति का कोई सम्मान ना हो उसे भी सीख रही त्याग देना चाहिए। ऐसी पत्नी को जीवन भर ढोने का कोई औचित्य नहीं है
स्नेहरहित बंधुबांधव - ऐसे लोग जो अपना होने का दावा करें और संकटकाल आने पर मुंह मोड़ ले रास्ते बदलने। चाणक्य कहते हैं कि चाहे कितने भी निकट हों उनका यथाशीघ्र त्याग कर देना चाहिए। आजकल यह बात आम देखने में आती है कि लोग अपना होने का दावा तो करते हैं किंतु संकटकाल आते ही मुंह मोड़ लेते हैं। ऐसे रिश्तेदारों के होने से तो ना होना अच्छा है जिससे कि व्यक्ति किसी भी भ्रम में नहीं रहता।
Constant travel brings old age upon a man; a horse becomes old by being constantly tied up; lack of sexual contact with her husband brings old age upon a woman; and garments become old through being left in the sun.
भावार्थ- सतत भ्रमण करना व्यक्ति को बूढ़ा बना देता है । यदि घोड़े को हर-दम बांध कर रखते है तो वह बूढा हो जाता है । यदि स्त्री उसके पति के साथ प्रणय नहीं करती हो तो बुढी हो जाती है।धुप में रखने से कपडे पुराने हो जाते है ।
अध्वा जरा मनुष्याणां वाजिनां बंधनं जरा ।
अमैथुनं जरा स्त्रीणां वस्त्राणामातपं जरा ।।17।।
भावार्थ- सतत भ्रमण करना व्यक्ति को बूढ़ा बना देता है । यदि घोड़े को हर-दम बांध कर रखते है तो वह बूढा हो जाता है । यदि स्त्री उसके पति के साथ प्रणय नहीं करती हो तो बुढी हो जाती है।धुप में रखने से कपडे पुराने हो जाते है ।
व्याख्या- अक्सर सुनने में आता है कि पैदल चलना सैर करना आदि स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है ऐसे में एक बार लगता है कि आचार्य चाणक्य की बात उचित नहीं किंतु यदि हम समय पर ध्यान दें तो ज्ञात होता है कि यह बात उस समय कही गई थी जब यातायात के अधिक साधन नहीं थे तब बहुत से लोग मजबूरी बस लंबी लंबी यात्राएं पैदल किया करते थे
ऐसे में खान पान व सोने जागने की उचित व्यवस्था ना होने के कारण उन पर रोगों का आक्रमण हो जाता था और रोगी होकर वे शीघ्र ही वृद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाते थे। दूसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ‘वाजिनां बंधनं जरा’ अर्थात घोड़ों के लिए बंधन जरा अर्थात बुढ़ापा आने वाला है। घोड़े का स्वभाव है दौड़ना, दौड़ते रहने से उसमें स्फूर्ति आती है यदि उसे लंबे समय तक एक ही स्थान पर बांधकर रखा जाए तो उसकी हड्डियाँ जुड़ जाएंगी और वह भागने योग्य नहीं रहेगा।
ऐसी में वह शीघ्र ही बूढ़ा हो जाएगा। स्त्री के संदर्भ में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि उसका समय अनुसार भोगना किया जाए तो वह भी असमय ही बूढ़ी हो जाती हैं। संभोग से स्त्रियों में उत्साह और उमंग उत्पन्न होती है यह ना हो तो भी सजना सवरना छोड़ दें और समय से पूर्वी बुड्ढी दिखाई देने लगे। इसी प्रकार वस्त्रों का है यदि उन्हें अधिक समय तक धूप में पड़े रहने दिया जाए तो वे चटक जाएंगे और जर्जर हो जाएंगे।
Consider again and again the following: the right time, the right friends, the right place, the right means of income, the right ways of spending, and from whom you derive your power.
भावार्थ- इन बातो को बार बार गौर करे , सहीसमय , सही मित्र , सही ठिकाना , पैसे कमाने के सही साधन , पैसे खर्चा करने के सही तरीके और आपके उर्जा स्रोत
कःकालः कानि मित्राणि को देश : को व्ययागमौ ।
कस्याहं का च मेशक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः ।।18।।
भावार्थ- इन बातो को बार बार गौर करे , सहीसमय , सही मित्र , सही ठिकाना , पैसे कमाने के सही साधन , पैसे खर्चा करने के सही तरीके और आपके उर्जा स्रोत
व्याख्या- आचार्य ने यह बात बड़ी सुंदर कही है व्यक्ति को समय-समय पर आकलन करते रहना चाहिए कि मेरा समय कैसा चल रहा है बुरा समय है तो कुछ कार्य नहीं करने चाहिए अच्छा समय हो तो लाभ वाले कार्य तुरंत करने चाहिए। मित्रों की परख भी व्यक्ति को समय-समय पर करनी चाहिए यानी मित्रों की आजमाइश करते रहना चाहिए। वक्त का क्या भरोसा कि कौन सा मित्र कब शत्रु बन जाए
मित्र वही है जो व्यक्ति के सुख दुख में काम आए जो मित्र सुख दुख में काम ना आए उसे मित्र कैसे कहा जा सकता है। अतः चाणक्य कहते हैं कि समय-समय पर मित्रों की परख भी करते रहना चाहिए।
को देश : व्यक्ति जिस स्थान विशेष पर रह रहा है वहां का भी समय-समय पर निरीक्षण करते रहना चाहिए कि वहां आसपास अब कैसे लोग रह रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सज्जन पुरुष वहां से पलायन कर गए हो और उनके स्थान पर दुर्जन, स्वार्थी, संवेदनहीन, लोग रह रहे हो। यदि ऐसा हो तो आचार्य चाणक्य का कथन है कि ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए।
को देश : व्यक्ति जिस स्थान विशेष पर रह रहा है वहां का भी समय-समय पर निरीक्षण करते रहना चाहिए कि वहां आसपास अब कैसे लोग रह रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सज्जन पुरुष वहां से पलायन कर गए हो और उनके स्थान पर दुर्जन, स्वार्थी, संवेदनहीन, लोग रह रहे हो। यदि ऐसा हो तो आचार्य चाणक्य का कथन है कि ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए।
को व्ययागमौ- आय और व्यय का भी व्यक्ति को समय-समय पर आकलन करते रहना चाहिए देखना चाहिए कि कहीं व्यय आय से अधिक तो नहीं हो रहा। आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया बाली स्थति व्यक्ति को आर्थिक संकट में डाल देती है। अतः व्यय आय पर नजर रखनी चाहिए। आगे तीसरे और चौथे में आचार्य चाणक्य ने अपने को ही आकलन करने की बात कही है। व्यक्ति को चाहिए कि अपने गुण दोषों एवं स्वभाव का भी आकलन करें।
कहीं ऐसा तो नहीं व्यक्ति अपने आपको बहुत ही समझने की भूल किए बैठा हो और इसी भूल में कुछ ऐसे काम कर रहा हो जो उसकी अपकीर्ति का कारण बने। इसके साथ ही अपनी शक्ति शारीरिक आर्थिक एवं भौतिक तीनों शक्तियों का आकलन भी व्यक्ति को करते रहना चाहिए। जो भी शक्ति छेड़ दिखाई दे उसमें सुधार करना चाहिए।
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम् ।
प्रतिमा त्वल्पबुध्दीनां सर्वत्र समदर्शिनाम् ।।19।।
भावार्थ- भक्तो के हृदय में परमात्मा का वास होता है । जो अल्पमति के लोग है वो मूर्ति में भगवान देखते है । लेकिन जो व्यापक दृष्टी रखने वाले लोग है , वो यह जानते है की भगवान सर्वव्यापी है ।
व्याख्या- द्विजाति अथवा ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य इनका देव अग्नि है। यह अग्निहोत्रादि करके देवता को प्रसन्न करते हैं और ऐसा मानते हैं कि अग्नि देवता हैं। देवों में भी होम हवन आदि की आज्ञा है। मुनियों के देव उनके हृदय में निवास करते हैं। वे स्वय में स्थित होकर सदा उनका स्मरण करते हैं अल्प बुद्धि अथवा साधारण प्राणी मूर्ति को ही देवता समझते हैं किंतु जो तत्व ज्ञानी हैं वे संसार के कण-कण में उस परमपिता परमेश्वर को देखता है अर्थात उनके लिए पूरी सृष्टि ही देवमई है।
जनतायोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पंचैते पितुर स्मृता ।।20।।
भावार्थ- जन्म देने वाला पिता तथा संस्कार कराने वाला रोहित, विद्या प्रदान करने वाला गुरु आजीविका देने वाला और भय रक्षा करने वाला-ये पांच पितर माने गए हैं
व्याख्या- जन्म देने वाला पिता उपनयन आदि संस्कार कराने वाला पुरोहित विद्या देने वाला आचार्य अन्नदाता अर्थात आजीविका देने वाला और भय से रक्षा करने वाला यह पांच पितर कहे गए हैं आमतौर पर देखा जाता है कि अपने ही पूर्वज जो काल- कवलित हो चुकी हैं व्यक्ति उन्हें ही अपना पित्र मानता है इसमें मृत्यु उपरांत पिता भी शामिल हो जाते हैं। किंतु चाणक्य कहते हैं कि गुरु पुरोहित अन्न देने वाला स्वामी एवं भय रक्षा करने बाला भी पितरों के समान पूजनीय व आदर के पात्र हैं। व्यक्ति यथासंभव इसका भी आदर सत्कार करें।
राजपत्नी गुरो: पत्नी मित्रपत्नी तथैव च ।
पत्निमाता स्वमाता च पंचैता मातरः स्मरतः।।21।।
भावार्थ- राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, पत्नी की माता (सास) तथा अपनी जननी यह पांच माता है कही गई हैं।
व्याख्या- जन्म देने वाली माता के अतिरिक्त किन-किन को माता समझना चाहिए। आचार्य चाणक्य इसी विषय पर प्रकाश डालते है राजा की पत्नी को माता मानना चाहिए। गुरु की पत्नी भी माता है किंतु आजकल इसका उल्टा ही देखने में आता है। लोगों का इस हद तक चरित्र गिर चुका है कि स्त्री को मात्र भोग्या समझकर व्यवहार करते हैं यह मनुष्य के पतन की पराकाष्ठा है। आमतौर पर देखने में आता है कि अधिकांश चरित्रहीन लोग अपने मित्र की पत्नियों को ही बुरी नजर से देखते हैं गुरु शिष्य के रिश्ते भी कलंकित हो रहे हैं।