चाणक्य नीति
कस्य दोषः कुलेनास्ति व्याधिना के न पीडितः ।
व्यसनं के न संप्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम् ।।1।।
In this world, whose family is there without blemish? Who is free from sickness and grief? Who is forever happy.
भावार्थ- दोष किस के कुल में नहीं है कौन ऐसा है ,जिसे दुख ने नहीं सताया है ? अवगुण किसे प्राप्त नहीं हुए? सदैव सुखी कौन रहता है ?
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसके कुल में कोई दोष ना हो। पूर्व में प्रत्येक कुल किसी न किसी दोष अबगुण के कारण अवश्य ही अपयश को प्राप्त हुआ है। यह अलग बात है कि आज वह दोष विश्म्रत हो गया है। यह बात चाणक्य ने विशेषतह उन लोगों के लिए कही है जो अपने कुल पर अभिमान करते हैं।
जो लोग रोग से पीड़ित होकर ईश्वर को दोष देते हैं उनके लिए चाणक्य कहते हैं कि अभी तक संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ है जो कभी ना कभी किसी रोग से पीड़ित नहीं हुआ हो। रोगी यह न सोचे कि उस पर अन्याय हो रहा है। कफ, वायु और पित्त से भरा हुआ यह शरीर अवश्य ही रोग युक्त होगा। अत: प्रत्येक व्यक्ति कभी ना कभी अवश्य ही रोग से पीड़ित होता है।
कुछ लोगों को भाग्य से शिकायत रहती है कि उनके भाग्य में दुख ही दुख लिखे हैं। चाणक्य कहते हैं कि संकट किस पर नहीं आया है। प्रत्येक प्राणी को संकट झेलने पड़ते हैं। सुख निरंतर किसी के भाग्य में नहीं रहता । सुख-दुख दिन रात की भांति आते जाते रहते हैं। यही प्रकृति का नियम है। आता व्यक्ति को चाहिए कि ना तो दुख में अधीर हो और ना ही सुख में अभिमान करें।
आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम् ।
सम्भ्रमः स्नेहमाख्यातिवपुराख्याति भोजनम् ।।2।।
A man's descent may be discerned by his conduct, his country by his pronunciation of the language, his friendship by his warmth and glow, and his capacity to eat by his body.
भावार्थ- मनुष्य का आचरण व्यवहार उसके खंडन को बताता है,भाषण अर्थात उसकी बोली से देश का पता चलता है,विशेष आदर-सत्कार से उसके प्रेम भाव का तथा उसके शरीर से भोजन का पता चलता है ।
व्याख्या- किसी व्यक्ति का आचार व्यवहार देखकर समझदार लोग सहज ही अनुमान लगा लेते हैं कि वह व्यक्ति किस कुल से संबंध रखता है अथवा कुलीन है या अकुलीन। ऊंचे कुल का है यह नीचे कुल का है। यहां यह समझने वाली बात है की जुबानी जमा खर्च करके व्यक्ति भले ही अपने आप को कितने ही उच्च कुल का बताएं लेकिन ज्ञानी जनों के समक्ष उसका आचार व्यवहार उसकी पोल खोल देता है। कुलीन व्यक्ति का अचार व्यवहार भी वैसा ही होगा और और कुलीन का उसके अनुसार।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति की भाषा से उसके प्रांत विशेष का पता चलता है। भाषा से ही हम समझ जाते हैं कि वह व्यक्ति गुजराती है या बंगाली या बिहारी या मद्रासी। व्यक्ति के हाव भाव उसके मन की भावनाओं को प्रकट कर देते हैं। किस व्यक्ति में कितनी दया है कितना प्रेम है अथवा कितनी क्रूरता है बातों का पता उसके हाव-भाव एवं कार्यों से चल जाता है
ज्ञानी पुरुष उसके द्वारा ही व्यक्ति की परख करते हैं। आगे चाणक्य कहते हैं कि शरीर से व्यक्ति के खानपान का पता चलता है। खाते पीते घर के व्यक्ति का शरीर अलग ही होगा और भुखमरी के शिकार व्यक्ति का अलग। इससे व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का पता चलता है।
सत्कुले योजयेत्कन्यां पुत्रं विद्यासु योजतेत् ।
व्यसने योजयेच्छ मित्रं धर्मे नियोजयेत् ।।3।।
Give your daughter in marriage to a good family, engage your son in learning, see that your enemy comes to grief, and engage your friends in dharma. (Krsna consciousness).
भावार्थ- कन्या का विवाह अच्छे कुल मे करना चाहिए। पुत्रः को विद्या के साथ जोड़ना चाहिए। दुश्मन को विपत्ति मे डालना चाहिए और मित्रः को अच्छे कार्यों मे लगाना चाहिए।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अपने कुल की कन्या के विवाह अच्छी परिवार ऊंचे कुल में करें। यहां ऊंचे कुल से मतलब धनवान परिवार से नहीं है। चाणक्य संस्कारों से युक्त कुल को ही उच्च कुल मानते हैं। संतान के संबंध में आचार्य चाणक्य का स्पष्ट निर्देश है कि उसे अच्छी शिक्षा दे। खूब पढ़ाई-लिखाई उसे योग्य बनाए। तीसरी बात आचार्य चाणक्य ने बड़ी ही अच्छी कही है
वे कहते हैं कि व्यक्ति अपने शत्रु को व्यसनो में फसा दे। यहां यह बात विशेष ध्यान देने वाली है। चाणक्य शत्रु से प्रत्यक्ष लड़ाई के पक्षधर नहीं हैं। वे कहते हैं कि शत्रु को किसी व्यसन में फंसा दो। व्यसन में फंसा व्यक्ति स्वयं ही खत्म हो जाता है। उसके व्यसन ही उसे ले डूबते हैं। जहां शत्रु के लिए चाणक्य ने व्यसन में फंसाने की बात कही है वही मित्र के लिए उनका आदेश है कि मित्र को धर्म के कार्यों में लगाना चाहिए यहां धर्म के कार्यों से तात्पर्य अच्छे कर्मों से है।
दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः ।
सर्पो दंशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे ।।4।।
Of a rascal and a serpent, the serpent is the better of the two, for he strikes only at the time he is destined to kill, while the former at every step.
भावार्थ- दुर्जन और सांप सामने आने पर सांप का वरन करना उचित है, न की दुर्जन का,क्योकि सर्फ़ तो एक ही बार डंसता है,परन्तु दुर्जन व्यक्ति कदम-कदम पर बार-बार डंसता है।
व्याख्या- इस इस लोक में आचार्य चाणक्य ने बड़ी ही मौके की बात कही है। वे दुर्जन अर्थात दुष्ट व्यक्ति को विषैले सर्प से भी अधिक विषैला मानते हैं। उनका कहना है कि यदि इन दोनों में से किसी एक के संग रहने का विचार करना पड़े तो व्यक्ति को चाहिए कि दुष्ट का परित्याग करें और सर्प को अपना ले। उनके अनुसार सर्प तो कभी क्रोधित होने अथवा आहित होने पर ही काटेगा किंतु दुष्ट व्यक्ति सदा ही डस्ता रहेगा।
उसके दंश को आचार्य सर्पदंश से भी अधिक घातक मानते हुए जन सामान्य को सचेत कर रहे हैं कि दुष्ट के साथ रहने से अच्छा है कि मृत्यु का वर्ण कर लिया जाए अतः व्यक्ति को दुष्ट की संगत से सदा बचना चाहिए।
एदतर्थं कुलोनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम् ।
आदिमध्यावसानेषु न स्यजन्ति च ते नृपम् ।।5।।
Therefore kings gather round themselves men of good families, for they never forsake them either at the beginning, the middle, or the end.
भावार्थ- इसलिए राजा खानदानी लोगों को ही अपने पास एकत्र करता है क्योकि कुलीन अर्थात अच्छे खानदान वाले लोग प्रारम्भ में मध्य और अंत में ,राजा को किसी भी दशा मे नहीं त्यागते।
व्याख्या- राजा लोग राजपुरुष आदि अपने निकट स्थित पदों पर सदा कुलीन व्यक्तियों की नियुक्ति करने के पक्षधर होते हैं इसका कारण यही है कि वे जानते हैं कि अपने अच्छे संस्कारों अच्छी शिक्षा दीक्षा के कारण वे उनकी उन्नति में सहायक होंगे सामान्य अवस्था में भी अच्छे सहयोगी सिद्ध होंगे और कठिन समय संकट आदि आने पर भी उसका साथ देंगे। कुलीन व्यक्ति सदा स्वामी भक्त होते हैं जबकि अकुलीन व्यक्ति बड़े लोगों से केवल स्वार्थ बस जुड़ते हैं और ज्यों ही स्वामी पर विपरीत समय आता है वे किनारा कर जाते हैं।
कुलीन घराने के लोग उन्नति के समय स्वामी के साथ चिपके रहते हैं। अतः व्यक्ति को चाहिए कि अपने जीवन में मित्र बनाने हो या सेवक रखने हो तो उनमें कुलीन घराने के पुरुषों को ही प्राथमिकता दें। नीच अथवा ओछे लोगों को ना अपना मित्र बनाएं ना उन्हें अपने संस्थान में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन करें। सारांश यही है कि कुलीनो के साथ संपर्क रखने से मनुष्य की उन्नति होती है।
प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः ।
सागरा भेदमिच्छान्ति प्रलयेऽपि न साधवः ।।6।।
At the time of the pralaya (cosmic destruction), the oceans are to exceed their limits and seek to change, but a saintly man never changes.
भावार्थ- प्रलय काल मै सागर भी अपनी मर्यादा को भी नष्ट कर डालते है परन्तु साधु लोग प्रलय काल के आने पर भी अपनी मर्यादा को नष्ट नहीं होने देते।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य ने यह बड़ी ही सुंदर बात कही है। सागर को बड़ा ही धीर गंभीर माना जाता है उसका उदाहरणदिया जाता है किंतु चाणक्य कहते हैं की धीर गंभीर पुरुष सागर से भी श्रेष्ठ है। सागर ज्वार भाटा आने पर या प्रलय आने पर अपनी मर्यादा तोड़ देता है। तटों को लांग कर भारी तबाही मचा देता है किंतु धीर गंभीर पुरुष संकटों के पहाड़ टूटने पर भी अपनी मर्यादा का त्याग नहीं करते।
प्राणों पर संकट आने पर भी वे अपनी धीरता एवं गंभीरता का त्याग नहीं करते। अतः संत पुरुष साधु जन कभी भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। यहां संत साधु का तात्पर्य गेरुआ वस्त्र धारण किए जोगी से नहीं है बल्कि उनसे ही जो स्वभाव से साधु है सुकर्म करने वाले नेक और दयालु हैं।
मूर्खस्तु परिहर्त्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः ।
भिद्यते वाक्यशूलेन अदृश्यं कण्टकं यथा ।।7।।
Do not keep business with a clown for as we can see he is a two-legged beast. Like an unseen thorn, he stabs the soul with his excellent words.
भावार्थ- मुर्ख व्यक्ति से बचना चाहिए। वह प्रत्यक्ष में दो पैरों वाला पशु है | जिस प्रकार बिना आंख वाले अर्थात अंधे व्यक्ति को कांटे भेदते हैं,उसी प्रकार मुर्ख व्यक्ति अपने कटु व् अज्ञान से भरे वचनों से भेदता है।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मूर्ख का संग कदापि नहीं करना चाहिए। बुद्धिहीन मूर्ख व्यक्ति दो पैरों वाले पशु से अधिक नहीं होता। जिस प्रकार पशु को अच्छे बुरे समय असमय का ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार मूर्ख को भी इन बातों का ज्ञान नहीं होता।
वह अपनी वाणी से सज्जनों को सदा ही पीड़ा पहुंचाता है क्योंकि उसे समझ नहीं होती कि उसे क्या कहना है और क्या नहीं कहना। वह कभी भी कुछ भी बक देता है और उसकी वाणी इस प्रकार आहत करती रहती है जिस प्रकार पांव में चुभा कांटा दिखाई ना देने पर भी आहत करता है पीड़ा पहुंचाता रहता है।
रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इवकिशुकाः ।।8।।
Though men are provided with excellence and youth and born in noble families, yet without education, they are like the palace flower, which is void of sweet perfume.
भावार्थ- रूप और यौवन से सम्पन तथा उच्च कुल मे जन्म लेने वाला व्यक्ति भी यदि विद्या से रहित है तो वह बिना सुगंध के फूलों की भांति शोभा नहीं पाता।
व्याख्या-आचार्य चाणक्य ने यहां विद्या के महत्व पर प्रकाश डाला है। वे कहते हैं कि यदि कोई युवक सुंदर है सेहतमंद है स्मार्ट है,योवन से भरपूर है किंतु यदि वह अनपढ़ है तो ऊंचे कुल में जन्म लेने के बाद भी वह समाज में आदर का पात्र नहीं होता। उसकी गति किंशूक नामक पुष्प जैसी होती है। लाल रंग का यह पुष्प देखने से बहुत सुंदर होता है किंतु उसमें सुगंध नहीं होती और इसी कारण वह अपेक्षित होता है। ना तो उसे पूजा में शामिल किया जाता ना ही वह देवताओं के सिर पर शोभायमान होता है।
प्रकृति में उसका होना ना होना बराबर है। उसी प्रकार विद्या हीन का होना ना होना भी कोई महत्व नहीं रखता भले ही वह ऊंचे से ऊंचे कुल में पैदा हुआ हो। इससे सिद्ध होता है कि उच्च वंश, बल योवन विद्या के बिना सब व्यर्थ है। ऐसा व्यक्ति किंशुक के फूल की बातें निरर्थक है जिसका कोई उपयोग नहीं है।
कोकिलानां स्वरो रूपं नारीरूपं पतिव्रतम् ।
विद्यारूपं कुरूपाणांक्षमा रूपं रपस्विनाम् ।।9।।
In its letters, the value of a cuckoo is that of a woman in her unalloyed commitment to her husband, that of a violent person in his knowledge, and that of an ascetic in his forgiveness.
भावार्थ- कोयल की शोभा उसके सुर मे है ,स्त्री की शोभा उसके पतिव्रत धर्म मे है, कुरूप व्यक्ति की शोभा उसके विद्वता मे हैऔर तपःस्वी की शोभा क्षमा में है।
व्याख्या-आचार्य चाणक्य ने किस में किस की सुंदरता अथवा शोभा या महानता है इसका वर्णन किया है। वे कहते हैं कि कोयल की सुंदरता उसका स्वर है। प्रत्यक्षता: है सब जानते है कि कोयल काली होती है किंतु उसका स्वर इसका कर्णप्रिय मोहक और मनमोहित कर देने वाला होता है किंतु से सभी पसंद करते हैं। मीठा बोलने वाली स्त्री को कोकिला कहकर पुकारा जाता है। अर्थात तात्पर्य यह है कि उसका स्वर ही उसकी सुंदरता है।
जरा सोचिए कि यदि कोयल के पास ऐसा मीठा स्वर ना होता तो कौवा और कोयल में क्या फर्क होता। कौवे को लोग पसंद क्यों नहीं करते। वह भी काला है कोयल भी काली है किंतु कोयल जैसा स्वर कौए के पास नहीं है। अपनी कर्कश वाणी के कारण ही वह सब जगह से भगा दिया जाता है जबकि अपनी मधुर वाणी के कारण कोयल सम्मान और अपनापन पाती है। यहां दूसरे पहलू पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट होता है कि आचार्य चाणक्य जनसाधारण को वाणी का महत्व समझा रहे है।
व्यक्ति अपने रंग रूप पर न जाकर अपनी वाणी को तराशे और उसे मीठा बनाए। मीठा बोल बोले ताकि लोग उसके शारीरिक सौंदर्य को महत्व न देकर उसके मधुर वचनों के कारण उसे प्यार करें उसका सम्मान करें। स्त्री के रूप सौंदर्य के संदर्भ में चाणक्य कहते हैं कि स्त्री का रूप सौंदर्य उसका पतिव्रत धर्म है। पतिव्रत पृथ्वी लोक पर ही नहीं तीनों लोगों में सम्मान के पात्र होती हैं। देवता भी उनका आदर करते हैं यहां स्त्री की सुंदरता उसका पतिव्रत धर्म है। जो स्त्री सुंदर हो लावणी युक्त हो किंतु चरित्रहीन हो उसका भला कहां आदर होता है।
लोगों की बात क्या वह तो अपने समाज में भी आदर का पात्र नहीं होती। रूप रस लोधी भंवरे अपना मतलब सिद्ध करने के लिए भले ही उसकी प्रशंसा करें किंतु उसके हृदय में भी उसके प्रति तिरस्कार के भाव होते हैं। ऐसी स्त्री कभी भी कहीं भी सम्मान की पात्र नहीं होती। वह तो मात्र एक वस्तु की भांति पुरुषों के भोग के काम आती है इससे अधिक कुछ नहीं। स्त्री भले ही साधारण रंग रूप वाली हो अथवा कुरूप हो किंतु यदि वह पवित्रता है तो अपने तेज से वह चारों दिशाओं और तीनों लोगों में सम्मान का पात्र होती है। श्लोक के तृतीय खंड में चाणक्य पुरुषों की सुंदरता का वर्णन कर रहे हैं। पे कहते हैं
पुरुष की सुंदरता विद्या है। यहां हम बहुत दूर न जाकर स्वय आचार्य चाणक्य का ही उदाहरण लेते हैं महाराज धनानंद से अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने जानबूझकरस्वयं को कुरूप बना लिया था किंतु अपने विद्या बल पर ही वे युगपुरुष बन गए। इसलिए वे कहते हैं कि जिसके पास विद्या है उसे अपनी पूर्णता की ओर किंचित मात्र भी ध्यान नहीं देना चाहिए क्योंकि उसकी विद्या ही उसका सौंदर्य है। श्लोक के चौथे खंड में आचार्य ने तपस्वी की सुंदरता का वर्णन किया है। तपस्वी का सौंदर्य है क्षमा।
जो जो तपस्वी क्षमा करना नहीं जानता वह कैसा तपस्वी लाख गुण होते हुए भी ऐसे तपस्वी ऋषि मुनि के साथ क्रोधी का अलंकार जुड़ जाता है जो योग योगातर तक उसका पीछा नहीं छोड़ता। दुर्वासा ऋषि का उदाहरण हमारे सामने है। धर्म शास्त्रों में उनके दूसरे गुणों की चर्चा इतनी नहीं होती जितनी उनके क्रोधित होकर श्राप देने के आलेख मिलते हैं। अतः सच्चे तपस्वी को क्षमाशील होना चाहिए। क्षमा शीलता हीन तपस्वी सुंदर नहीं कहा जा सकता रूपवान नहीं कहा जा सकता।
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।10।।
Give up a member to save a family, a family to save a community, a village to save a country, and the country to save yourself.
भावार्थ- किसी एक व्यक्ति को त्यागने से यदि कुल की रक्षा होती है तो उस एक को छोड़ देना चाहिए । पुरे गांव की भलाई के लिए कुल को तथा देश की भलाई के लिए गांव को और अपने आत्म सम्मान के की रक्षा के लिए सारी पृथ्वी को छोड़ देना चाहिए ।
व्याख्या- इस श्लोक में कुल, ग्राम, जनपद एवं आत्म कल्याण के त्याग का निर्देश किया गया है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि किसी एक व्यक्ति के कारण पूरे कुल पर आपत्ती आने की आशंका हो कुल के इष्ट होने की स्थिति उत्पन्न हो जाए और उस व्यक्ति का त्याग करके कुल की रक्षा होती हो तो व्यक्ति को चाहिए कि कुल पर संकट लाने वाले ऐसे व्यक्ति का त्याग करने में तनिक भी संकोच न करें।
इस श्लोक के दूसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि यदि ग्राम में कोई संकट आ जाए अथवा उसकी श्री वृद्धि एवं उन्नति के लिए व्यक्ति को अपने कुल का भी त्याग करना पड़े तो निसंकोच कर देना चाहिए श्लोक के तीसरे खंड में उन्होंने कहा है कि यदि जनपद की श्रीब्रद्धि उन्नति और विकास के लिए यदि ग्राम का भी त्याग करना पड़े तो क्या कर देना चाहिए।
सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात आचार्य ने इस श्लोक के चौथे खंड में कही है। कहते हैं की आत्मा उत्तथान के लिए संपूर्ण पृथ्वी का त्याग कर देना चाहिए। यहां आत्मा की उन्नति की बात सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और यदि उसके लिए सब कुछ त्याग देना चाहिए।
उद्योगे नास्ति दारिद्र्य जपतो नास्ति पातकम् ।
मौनेनकलहोनास्ति नास्ति जागरितो भयम् ।।11।।
There is no need for the current. Sin does not connect itself to the person chanting the holy names of the Lord.Those who are engaged in silent contemplation of the Lord have no quarrel with others and They are fearless who remain always alert.
भावार्थ- उद्योगधंधा करने पर निर्धनता नहीं रहती है । प्रभु नाम का जप करने वाले का पाप नष्ट हो जाता है । चुप रहने अर्थात सहनशीलता रखने पर लड़ाई झगड़ा नहीं होता और वो जगाता रहता है अर्थात सदैव सजग रहता है उसे कभी भय नहीं सताता।
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने अत्यंत उत्तम बात कही है। भी कहते हैं उद्योगी के पास दरिद्रता नहीं आती। सत्य है कि जो कर्मशील है पुरुषार्थी यह जो अपने कारोबार के लिए पूरी तरह समर्पित है उस व्यक्ति को दरिद्रता कभी नहीं सताती अर्थात वह गरीबी का शिकार नहीं होता। अतः व्यक्ति को निरंतर परिश्रम करना चाहिए अपने व्यापार व्यवसाय के प्रति समर्पित होना चाहिए।
दूसरे खंड में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जब करने वाले अर्थात जो सदैव उस उस परमात्मा, परमेश्वर, अल्लाह आदि का नाम स्मरण करते रहते हैं उन्हें पाप नहीं सताते। यहां किसी जाति या धर्म विशेष के लिए यह बात नहीं कही गई है। व्यक्ति जिसे भी अपना ईश्वर मानता है उसके पवित्र नाम का सदैव ध्यान करें। इससे उसकी आत्मा को न केवल अतिरिक्त बल प्राप्त होता है बल्कि ईश्वर का ध्यान के लिए उसकी मत पाप कर्मों की ओर उद्धत नहीं होती। इतना ही नहीं इस शुभ कार्य से उसके द्वारा पूर्व में जाने अनजाने किए गए पाप भी नष्ट होते हैं।
तीसरे खंड में तो बड़ी ही अच्छी बात कही है। आचार्य चाणक्य ने यहां पर बल दिया है। मौन रहने वाला कलह से दूर रहता है। अक्सर देखा जाता है कि वाद विवाद से ही कलह बढ़ती है। ऐसे में यदि मौन धारण कर लिया जाए तो विवाद वहीं समाप्त हो जाता है। कहा भी गया है कि एक चुप सौ चुप। अतः व्यक्ति से बचने के लिए मौन धारण करें।
चौथे श्लोक में आचार्य चाणक्य ने जागरूकता की महत्ता बताइए। जागरूक एवं सजग रहने वाले व्यक्ति को चोरी चकारी का डर नहीं रहता। अक्सर देखा जाता है की गाफिल या उम्मीदें व्यक्ति हमेशा चोट खा जाते हैं। अपनी गफलत के कारण वे चोरी चकारी डकेती एवं रोगों के शिकार होते हैं। अतः व्यक्ति को सदा चौकन्ना एवं सावधान रहना चाहिए।
अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वणः रावणः ।
अतिदानाब्दलिर्बध्दो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत् ।।12।।
Extremeness in their things beauty, pride, the donation can be troublesome, so avoids extremeness in any situation.
भावार्थ- अति सुन्दर होने के कारण सीता का हरण हुआ,अत्यंत अहंकार के कारण रावण मारा गया,अत्यधिक दान के कारण राजा बलि बांधा गया । अतः सभी के लिए अति ठीक नहीं है |'अति सर्वथा वर्जयते '। अति को सदैव छोड़ देना चाहिए ।
व्याख्या-अति सदा त्यागने योग्य है अच्छी नहीं है। इसी बात को आचार्य चाणक्य ने इस श्लोक में कहा है।अति से होने वाले प्राचीन झमेलों का हवाला देते हुए कहते हैं कि अति सुंदर यह भी सीता जी के हरण का कारण बना। उसके अति सुंदर की प्रशंसा सुनकर ही रावण की बुद्धि भ्रमित हुई और वह उनका हरण करके ले गया। दूसरे रावण भी महाबली योद्धा था। उसे अपने बाहुबल अपनी सिद्धियों और बुद्धि पर अत्यधिक गर्भ था। अपने इसी अति गर्व के कारण उसने श्रीराम से बैर बना लिया और अंततः मृत्यु को प्राप्त हुआ।
प्रहलाद पुत्र राक्षस राजबली अत्यधिक दानी था। वह अपने दान देने की अति के कारण ही बंधन को प्राप्त हुआ। पुराणों में ऐसी कथा मिलती है कि बलि के अतिदान की चर्चा तीनों लोगों में होने लगी तो भगवान इंद्र का सिंहासन डोला। अपने दान तप के बल पर कहीं वह इंद्रासन का दावेदार ना बन जाए। तब देव इन्द्र विष्णु भगवान की शरण में गए और उन्होंने कहा हे प्रभु कहीं ऐसा ना हो कि एक राक्षस इंद्रासन पर आसीन हो जाए। तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर बलिके तीनों पग भूमि का दान मांगा। बलि ने दे दिया।
भगवान ने दो भाग में सब कुछ पृथ्वी आकाश को नाप लिया और तीसरे पग में रसातल में पहुंच गए। यह देखकर बली बंधन में पड़ गया। इसलिए चाणक्य कहते हैं कि किसी भी कार्य में व्यक्ति को अति नहीं करनी चाहिए। आवश्यकता से अधिक बोलना, खाना पीना, सोना, चलना, बैठना, देखना, आज जितनी भी इस प्रकार की क्रियाएं हैं अति होने पर नुकसानदायक हैं। अतः व्यक्ति को अति से सदा बचना चाहिए।
कोऽतिभारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम् ।
को विदेशः सुविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम् ।।13।।
What is too heavy for the strong and what place is too distant for those who put forth effort? What country is foreign to a man of true learning? Who can be inimical to one who speaks pleasingly?
भावार्थ- समर्थ को भार कैसा ? व्यवसायी के लिए कोई स्थान दूर कैसा ? विद्वान के लिए विदेश कैसा मधुर वचन बोलने वाले का शत्रु कौन ?
व्याख्या- कैसा भी भार हो शक्तिशाली समर्थ व्यक्ति के यह उठाना कठिन नहीं होता। सूझ बुझ बाला समर्थ व्यक्ति हर प्रकार का उत्तर दायित्व निभा सकता है। इसी प्रकार व्यापारी के लिए कोई शहर दूर नहीं। व्यक्ति को दूर पास का विचार ना करके अपने व्यापार का विस्तार करना चाहिए। विदेश के भय से विद्या हीन घबराते हैं। विद्यावान के लिए कोई जगह पराई नहीं कोई विदेश नहीं।
अपने विद्या बल से वह विदेश में भी स्वदेश जैसा ही सम्मान और सुविधाएं पा सकता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति मधुर भाषी है उसके लिए कौन पराया? कोई नहीं। अपनी मीठी वाणी से वह सब को अपना बनाने में समर्थ रखता है।
एकेनापि सुवृक्षेण दह्यमानेन गन्धिना ।
वासितं तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा ।।14।।
As a whole forest becomes fragrant by the existence of a single tree with sweet-smelling blossoms in it, so a family becomes famous by the birth of a virtuous son.
भावार्थ- एक ही सुगन्धित फूल वाले वृक्ष से जिस प्रकार सारा वन सुगंधित हो जाता है,उसी प्रकार एक सुपुत्र से सारा कुल सुशोभित हो जाता है।
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने कुल तारण पुत्र के संदर्भ में कहा है कि उत्तम गुणों से युक्त सुपुत्र उसी वृक्ष की भांति होता है जो एकलौता ही अपने फूलों की सुगंध से पूरे वन को सुगंधित कर देता है। उसी प्रकार गुणवान पुत्र पुरे कुल तार देता है। कहा भी गया है 100 कुपुत्र से अच्छा है एक गुनी पुत्र होना। सपूत पैदा करने से बेहतर है कि व्यक्ति एक पुत्र पैदा करें और वह गुणीं हो।
एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वन्हिना ।
दह्यते तद्वनं सर्व कुपुत्रेण कुलं यथा ।।15।।
If set aflame, a single withered tree causes a whole forest to burn, so does a rascal son destroy a whole family.
भावार्थ- आग से जलते हुए सूखे वृक्ष से जिस तरह सारा वन जल जाता है जैसे ही एक नालायक लडके से कुल का नाश हो जाता है।
व्याख्या-इस श्लोक में भी आचार्य चाणक्य ने पुत्र के सपूत और कपूत होने का प्रकाश डाला है। वे कहते हैं कि वन में आग लगने पर वह तब तक प्रचंड रूप धारण नहीं करती जब तक कोई सूखा वृक्ष उसके नजदीक ना आ जाए। यदि आग कोई सूखा वृक्ष नहीं मिलता तो वह शीघ्र ही बुझ जाती है। उसी प्रकार कुल की प्रतिष्ठा पर तब तक कोई आंच नहीं आती जब तक कोई धूर्त, चरित्रहीन, मूर्ख, कुलदीपक, उसे दग्ध करने की चेष्टा नहीं करता। कुल का एक ही कपूत वरसों से सजी गई कुल की प्रतिष्ठा को नष्ट कर देता है।
एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन साधुना ।
आल्हादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी ।।16।।
As night looks delightful when the moon shines, so is a family gladdened by even one learned and virtuous son.
भावार्थ- जिस प्रकार चंदमा से रात्रि की शोभा होती है,उसी प्रकार एक सुपुत्र,अर्थात साधु प्रकृति वाले पुत्र से कल आंनदित होता है।
व्याख्या- कुल में शिक्षित और साधु स्वभाव पुत्र होने की बड़ी महिमा बताई है। भी कहते हैं कि ऐसे सुपुत्र का जन्म किसी भी कुल के लिए ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार घनी काली रात में अचानक चंद्रमा का उदय हो जाना और सर्वत्र अपनी सुखद ज्योत्सना से जनमानस को आनंदित कर देना। ऐसा शिक्षित पुत्र पूरे समाज में पूरे राष्ट्र में और समस्त विश्व में कुल का नाम रोशन कर देता है जबकि कुपुत्र सभी को उसी प्रकार प्रिय नहीं होता जिस प्रकार अंधकार किसी को प्रिय नहीं होता।
किं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः ।
वरमेकः कुलालम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम् ।।17।।
What is the use of having many sons if they cause grief and vexation? It is better to have only one son from whom the whole family can derive support and peacefulness.
भावार्थ- शौक और दुःख देने वाले बहुत से पुत्रों को पैदा करने से क्या लाभ है ? कुल को आश्रय देने वाला तो एक पुत्रः ही अच्छा होता है ।
व्याख्या- यह मात्रा और गुणवत्ता पर आचार्य श्री ने प्रकाश डाला है। भी क्वालिटी पर जोर दे रहे हैं ना कि क्वांटिटी पर। 100 पुत्र और 100 के 100 निकम्मे,दुराचारी कुल की प्रतिष्ठा का नाश करने वाले तथा अपने आचरण से कुल के सदस्यों का मन दुखाने वाले हो तो यह एक अभिशाप से भी अधिक कुछ नहीं। अच्छे आचरण वाला सदाचारी एक ही पुत्र यदि किसी कुल में हो तो वह ऐसे 100 पुत्र से अच्छा है। कहा भी गया है बेटा एक हो मगर नेक हो। अतः अच्छी पुत्रों की कामना व्यक्ति ना करें। एक ही पुत्र है तो इससे दुखी ना हो कि ऐसे एक ही पुत्र है बल्कि उसे संस्कारवान और शिक्षित बनाएं। वहीं एक कुल का नाम रोशन कर देगा।
लालयेत्पञ्चवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् ।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ।।18।।
Fondle a son until he is five years of age, and use the stick for another ten years, but when he has attained his sixteenth year treat him as a friend.
भावार्थ- पुत्रों से पांच वर्ष तक प्यार करना चाहिए । उसके बाद दस वर्ष तक उसे दंड आधी देते हुए अच्छे कार्य की और लगाना चाहिए । सोलहवाँ साल आने पर मित्र जैसा व्यवहार करना चाहिए । संसार मे जो कुछ भी भला-बुरा है उसका उसे ज्ञान कराना चाहिए।
व्याख्या- आचार्य जी ने यह बड़ी ही अच्छी एवं शिक्षाप्रद बात कही है। यह बात खास तौर पर उस पिता के लिए कही गई है जो लाड प्यार में अपने पुत्र का जीवन नष्ट कर देते हैं। डांटने की उम्र तक वे उसे लाड प्यार देकर उसका जीवन नष्ट कर देते हैं और जब पुत्र के साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए तब उसे बिगड़ गया कहकर उसके साथ मार पिटाई करते हैं और इस प्रकार अनजाने में ही पिता और पुत्र के बीच शत्रुता की अनदेखी दीवार खड़ी हो जाती है।
वास्तव में पुत्र को बिगाड़ने या सुधारने में पिता बड़े ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पुत्र का जीवन सुधारें उसमें अच्छे संस्कार लाएं छोटे-बड़े के प्रति कर्तव्यों की समझ पैदा हो इसके लिए चाणक्य ने कहा है कि 5 वर्ष की अवधि तक पुत्र को लाड प्यार करो क्योंकि इस आयु में वह अबोध हैं इसके बाद 10 वर्षों तक पुत्र की कारगुजारीओं की पिता अनदेखी ना करें गलती पर उसे डांटे फटकारे और आवश्यकता पड़े तो पिटाई भी करें और यह सिलसिला 16 वर्ष तक चले क्योंकि यही उम्र युवक को बिगाड़ने की होती है
इस उम्र में ही बच्चे में अच्छे संस्कार अथवा कुसंस्कार अपनी जड़ें जमाते हैं। ऐसे में उस पर लगाम कसनी अनिवार्य है किंतु जब ही पुत्र 16 वर्ष में प्रवेश करें तो पिता को पूर्णता अपना व्यवहार बदल देना चाहिए। उसे पुत्र को मित्र रूप में स्वीकार कर उसे अच्छे बुरे की सीख देनी चाहिए। पिता को इस उम्र में पुत्र के साथ मारपीट नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार के आचरण से पुत्र के मन में यह धारणा आ सकती है कि मेरा पिता मेरा शत्रु है अथवा मेरा पिता मुझे पसंद नहीं करता। पुत्र के मन में ऐसी धारणा का आना पूरे परिवार के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।
उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे ।
असाधुजनसम्पर्के यः पलायति जीवति ।।19।।
He who runs away from a fearful calamity, a foreign invasion, a terrible famine, and the companionship of wicked men is safe.
भावार्थ- देश मे भयानक उपद्रव होने पर शत्रु के आक्रमण के समय,भयानक अकाल के समय,दुष्ट का साथ होने पर, जो भाग जाता है,वही जीवित रहता है।
व्याख्या- किसी प्राकृतिक आपदा के आने पर अथवा दुष्ट लोगों की संगत हो जाने पर व्यक्ति को चाहिए कि यथाशीघ्र वह स्थान छोड़ दे। यह स्पष्ट है कि जहां बार-बार प्राकृतिक आपदाएं आती हो वहां रहने वाला एक ना एक दिन उसका शिकार होकर मृत्यु को प्राप्त कर जाएगा जिस देश में अराजकता फैली हो आतंक का साम्राज्य हो निर्दोष जन छिछोरी राजनीति की बलि चल रहे हो समझदार व्यक्ति को चाहिए कि उस स्थान को भी यथाशीघ्र छोड़ दे।
ना जाने कब उसकी जान पर बनाए। आचार्य ने दुष्टों की संगति से बचने पर भी बल दिया है। जहां दुर्जनों, स्वार्थी लोग भी शराबी कव्वाली ज्वारी चोर डाकू दूसरों का हक मारने वाले ऐसे लोगों का बहुमत हो वहां भी व्यक्ति ना रहे। समझदार व्यक्ति को ऐसी जगह से तुरंत ही पलायन कर जाना चाहिए। जो लोग ऐसा नहीं करते और रूढ़िवादी विचारधारा के होने के कारण वहीं पर पड़े रहते हैं और कष्ट भोगने रहते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक न एक दिन दे मुफ्त में मारे जाएंगे।
धर्मार्थकाममोक्षेषु यस्यैकोऽपि न विद्यते ।
जन्मजन्मनि मर्येष मरणं तस्य केवलम् ।।20।।
He who has not acquired one of the courses: religious merit (dharma), wealth (artha), a settlement of desires (kama), or liberation (moksa) is repeatedly born to die.
भावार्थ- जिसके पास धर्म-अर्थ,काम ,और मोक्ष ,इनमें से एक भी नहीं है, उसके लिए अनेक जन्म लेने का फल केवल मृत्यु ही है ।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य ने मनुष्य को जागृत करने के लिए ही उक्त श्लोक कहां है। मनुष्य जन्म की सार्थकता पुरुषार्थ करने में है और पुरुषार्थ चार प्रकार के कहे गए हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इन चारों में से किसी एक पुरुषार्थ की प्राप्ति का प्रयत्न मनुष्य को अवश्य करना चाहिए। वैसे जन्म तो उसी का सार्थक है जो समय अनुसार चारों ही पुरुषार्थओं की प्राप्ति करें किंतु यदि चारों संभव ना हो तो 3 को करें 3 सही किन्ही दो को करें यदि दो भी ना संभव हो तो किसी प्रकार एक ही करें।
जो किसी एक भी पुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं कर पाता उसका जन्म और मरण दोनों व्यर्थ हैं हमारे शास्त्रों मेंकहा गया है कि मनुष्य जन्म बड़ा ही दुर्लभ है इसे व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। जो मनुष्य जन्म पाकर भी पुरुषार्थ नहीं करता धन अर्जित करके धर्मार्थ के कार्य नहीं करता सृष्टि की वृद्धि के काम नामक पुरुषार्थ से विमुख रहता है तथा वृद्धावस्था आने पर मोक्ष के लिए प्रयत्न नहीं करता वह युगों युगों तक 84 के फेर में पड़ा रहता है।
मूर्खा यत्र न पुज्यन्ते धान्यं यत्र सुसञ्चितम् ।
दाम्पत्ये कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता ।।21।।
Lakshmi, the Goddess of wealth, comes of Her own accord where fools are not respected, grain is well stored up, and the husband and wife do not quarrel.
भावार्थ- जहाँ मूर्खों का सम्मान नहीं होता ,जहाँ अन्न भंडार सुरक्षित रहता है ,जहाँ पति-पत्नी मैं कभी झगड़ा नहीं होता ,वहां लक्ष्मी बिना बुलाये ही निवास करती है और उन्हें किसी प्रकार की कमी नहीं रहती
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जहां मूर्खों की पूजा नहीं होती अर्थात बुद्धिमान और गुणियों को भरपूर आदर मान दिया जाता है उन्हें प्रधानता दी जाती है जहां अन्न संचित और सुरक्षित होता है तथा जहां दंपति आपस में कलह नहीं करते ऐसे स्थान पर श्री लक्ष्मी जी स्वयं आकर निवास करती है इसमें कोई संदेह नहीं है।