चाणक्य नीति
अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलोभिता ।
अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणांदोषा : स्वभावजाः ।।1।।
भावार्थ - झूठ बोलना, उतावलापन दिखाना ,छल -कपट ,मूर्खता ,अत्यधिक लालच ,अशुद्धता और दयाहीनता, ये सभी प्रकार के दोष स्त्रियों मे स्वाभाविक रूप से मिलते है।
व्याख्या - आचार्य चाणक्य ने जिस काल की स्त्री का वर्णन किया है,उस काल में संभवतः स्त्रियों का बहुमत हो, किन्तु आज ऐसा नहीं हैं। आज स्त्रियाँ पढ़ी लिखीं, समझदार, सूझ बालीं हैं। फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक प्राणी के गुण दोष जन्मजात होतें हैं जिस प्रकार पच्छी स्वाभाव से ही उड़ते हैं, हिंसक पशु स्वाभाव से ही हिंसक होते हैं,
उसी प्रकार स्वाभाव से ही स्त्रियों में भी कुछ दोष होतें हैं जिसमे झूंठ बोलना, बिना सोचे समझे परिणाम की चिंता किये बिना कार्य कर देना, बात छिपाना , धोखा देना,मूर्खतापूर्ण बातें करना, लोभी होना आदि प्रमुख हैं किन्तु यह सब अशिक्षा की कमी के कारण भी है। आजकल शिक्षा के प्रभाव से ऐसा सभी स्त्रियों के विषय में नहीं कहा जा सकता।
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वराङ्गना ।
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ।।2।।
भावार्थ - भोजन कराने तथा उसे अच्छी तरह से पचाने की शक्ति हो तथा अच्छा भोजन, समय पर प्राप्त हो, प्रेम करने के लिए अर्थात रति-सुख प्रदान करने वाली उत्तम स्त्री के साथ संसर्ग हो, खूब सारा धन और उस धन को दान करने का उत्साह हो, ये सभी सुख किसी तपस्या के फल के समान है, अर्थात कठिन साधना के बाद ही प्राप्त होता है।
व्याख्या - आचार्य चाणक्य ने एक बड़ी विलक्षण बात कही है-- चना हों और दांत न हों,अच्छे अच्छे भोज्य पदार्थ हों और खाकर पचाने की सामर्थ व्यक्ति में न हों, अपने आप में बड़े दुःख की बात है। खाने को भी हो और पचाने की सामर्थ भी हो, शरीर में भोग बिलास की शक्ति भी हो, आत्मतृप्ति के लिए सुन्दर स्त्री हो और भरपूर धन हो तथा धन होने होने के साथ दान देने की प्रवृति हो। जिसके पास यह सब है, उसके पूर्व जन्मों के कर्मों का फल ही समझना चाहिए।
कुछ लोगो के पास अच्छा खासा शरीर होता है किन्तु धन नहीं होता, अच्छी खासी स्त्री पास होती है, किन्तु वह उसका भग नहीं कर पाता अर्थात स्त्री सुख से बंचित रहता है,यह पूर्व जन्मों के कर्मों का दुष्परिणाम होता है। यह एक प्रकार का दंड होता है। व्यक्ति के पास अच्छा खासा पैसा हो और उसमे दान करने की प्रवृति न हो,किसी का दुःख वह उस धन से दूर न कर सके,
यह भी बात उस व्यक्ति को कलंकित करने वाली है अर्थात एक प्रकार का दंड ही है किन्तु जिसके पास सब कुछ है तो वह समझ लेना चाहिए कि उसने पूर्व जन्म में आवश्यक ही कोई तप किया होगा।
यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी ।
विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ।।3।।
भावार्थ - जिसका पुत्रः आज्ञा कारी हो, स्त्री उसके अनुसार चलने वाली हो, जो अपने पास धन से संतुष्ट रह ता हो, उसका स्वर्ग यही पर है।
व्याख्या - स्वर्ग कहाँ है? इसका उत्तर आचार्य चाणक्य ने बड़े ही कम शब्दों में और बड़ा ही सटीक दिया है। वे कहते है कि आज्ञाकारी पुत्र, पवित्रता एवं सदा चारिणी स्त्री तथा उपलब्ध धन द्वारा ही जो संतोष क्र सुख का जीवन व्यतीत करता है, उसके लिए धरती पर ही स्वर्ग है ऐसा मानना चाहिए। जिस प्रकार अनेक सुकर्मो के फलस्वरुप स्वर्ग प्राप्त होता है, उसी प्रकार यह सुख स्वर्गिक है। आजकल जिस रफ़्तार से संवेदन एवं संवेदनशीलता बढ़ रही है,
माता पिता और संतान में वैचारिक मत भेद बढ़ रहे हैं, इस तरह के माहोल में भी यदि पुत्र पिता के वश में है अर्थात उसकी आज्ञा का पालन करता है, यह स्वर्ग से भी बड़ा सुख है। पत्नी का सदाचारिणी, पवित्रता एवं आज्ञा कारिणी होना दूसरा बड़ा सुख है और जो संतोषी है, इससे बड़ा सुख तो है ही नहीं। कहा भी गया है- 'संतोषं परमं सुखम' ऐसा जीवन जीने बाला व्यक्ति सचमुच धरती पर ही स्वर्ग भोगता है।
जो व्यक्ति अपने द्वारा अर्जित धन से संतुष्ट नहीं, वह उपरोक्त दोनों सुखो से वंचित रहता है क्योंकि वह तनाव में जीता है। ऐसा व्यक्ति स्वय अपने हाथों से, अपनी हरकतों से, अपने विचारों से अपने जीवन को नरक तुल्य बना लेता है।
ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः स पिता यस्तु पोषकः ।
तन्मित्रंयत्रविश्वासःसा भार्या यत्र निर्वृतिः ।।4।।
भावार्थ - पुत्रः वह हैं जो पिता भक्त है । पिता वही है जो बच्चों का पालन-पोषण करता हो स्त्री वही है जिससे परिवार मैं सुख-शांति व्याप्त हो।
व्याख्या - यहाँ पुत्र का पिताभक्त होने से तात्पर्य यही है कि जो तन मन से पिता की सेवा करे, उसकी आज्ञाओं का पालन करे। माता पिता के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो, वाही वास्तव में पुत्र कहलाने का अधिकारी है। इसी प्रकार चाणक्य कहते हैं कि पिता भी वही है जो तन मन धन से पुत्र का लालन पालन कर , पढ़ा लिखाकर उसे योग्य बनाये तथा उसका जीवन सुधारे। पैदा करके छोड़ देने वाला व्यक्ति पिता कहलाने का अधिकारी नहीं है।
संतान का ठीक से लालन पालन न करने वाला व्यक्ति, अपने फर्ज को ठीक से अंजाम न देने बाला व्यक्ति अपने पुत्र से सेवा सम्मान की अपेक्षा न करे। इसी प्रकार हर कोई किसी का मित्र नहीं होता। मित्र वाही होता है जिस पर व्यक्ति का पूर्ण विश्वास हो। जो सुख दुःख में समान रूप से साथ दे। घर में स्त्री का होना पत्नी सुख नहीं कहा जा सकता।
यदि वह स्त्री पति की सेवा करने वाली न हो। पति के लिए कलेश उत्पन्न करने वाली, उसकी आज्ञा न मानने वाली, जानबूझकर पति की इच्छा और आज्ञा के विरुद्ध काम करने वाली स्त्री पति के लिए जंजाल हो सकती है,सुख देने वाली पत्नी नहीं।
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भ पयोमुखम् ।।5।।
भावार्थ - जो मित्रः प्रत्यक्ष रूप से मधुर वचन बोलता हो और पीठ पीछे अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से आपके सारे कार्यों मैं रोड़ा अटकाता हो ,ऐसे मित्रः को उस घड़े के समान त्याग देना चाहिए जिसके भीतर विष भरा हो और ऊपर मुँह के पास दुध भरा हो।
व्याख्या- जो व्यक्ति आपके मित्र होने का दावा करता है। किन्तु मुख फेरते ही आपके बिगड़ने की चेष्टा करता है। मुख पर मीठी मीठी बातें करता है और पीठ में खंजर घोंपता है, ऐसे मित्र उस घड़े के समान होते हैं जिसके मुख पर तो दूध लगा होता है किन्तु अन्दर जहर भरा होता है। ऐसे विश्वासघाती मित्र को चाणक्य कहते हैं कि फ़ौरन ही त्याग देना चाहिए।
आपके जानकार हजारों हो सकते हैं लेकिन वे सभी आपके मित्र नहीं होते। पिछले श्लोक में चाणक्य बता चुके हैं कि सच्चा मित्र कैसा होता है जो विश्वास पात्र हो, जो सुख दुःख में कंधे से कन्धा मिलाकर खड़ा दिखाई दे। ऐसे व्यक्ति को तो कदापि मित्र न कहें जो पीठ पीछे आपके काम बिगड़ता हो और मुहँ पर मीठी मीठी बातें करके यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि वही आपका सच्चा हितेषी है। ऐसे मित्र को तो त्याग देना ही सही है।
Do not put your trust in a bad companion nor even trust an ordinary friend, for if he should get angry with you, he may bring all your secrets to light.
भावार्थ - बुरे मित्रः या अपने मित्रः पर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए क्योकि कभी नाराज होने पर संभवतः आपका विशिष्ट मित्रः भी आपके सारे रहस्यों को प्रकट कर सकता है।
न विश्वसेत्कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत् ।
कदाचित्कुपितं मित्रं सर्वगुह्यं प्रकाशयेत् ।।6।।
भावार्थ - बुरे मित्रः या अपने मित्रः पर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए क्योकि कभी नाराज होने पर संभवतः आपका विशिष्ट मित्रः भी आपके सारे रहस्यों को प्रकट कर सकता है।
व्याख्या- जो मित्र होने का भ्रम पैदा कर पीठ में चुरा घोपे, विश्वासघात करे, मौका पड़ने पर मुहं छुपा कर भाग जाए। ऐसे कुमित्र पर तो मनुष्य तो विश्वास करेगा ही नहीं, किन्तु चाणक्य कहते हैं कि सुमित्र पर विश्वास करके अपनी गोपनीय बातें नहीं बता देनी चाहिए
क्योकि न जाने आज का वाही मित्र कल को कुमित्र हो जाये और आपके गुप्त रहष्यों को दूसरे के सामने उजागर करके आपको आर्थिक , सामाजिक या मानसिक हानि पहुचाए। तात्पर्य यह है कि मित्रों पर विश्वास करने की भी एक सीमा होनी चाहिए। अँधा विश्वास किसी मित्र पर न करें। न जाने कल को वही आपके गुप्त भेद जानकर आपको हानि पहुंचाए।
Do not reveal what you have thought upon doing, but by wise council keep it secret, being determined to carry it into execution.
भावार्थ - मन से विचारे गए कार्य कभी किसी से नहीं कहना चाहिए , अपितु उसे मंत्रः की तरह रक्षित करके अपने कार्यों को करना चाहिए ।
मनसा चिन्तितं कार्यं वचसा न प्रकाशयेत् ।
मंत्रेण रक्षयेद् गूढं कायं चापि नियोजयेत् ।।7।।
भावार्थ - मन से विचारे गए कार्य कभी किसी से नहीं कहना चाहिए , अपितु उसे मंत्रः की तरह रक्षित करके अपने कार्यों को करना चाहिए ।
व्याख्या- इस श्लोक का बहुत अच्छा अर्थ है आचार्य चाणक्य कहते हैं कि मन की बात को गुप्त रखकर व्यक्ति को अपने कार्य में लगना चाहिए और कार्य पूर्ण करने के बाद ही अपनी योजना का खुलासा करना चाहिए बहुत से लोग अपनी योजनाएं इधर-उधर बताते रहते हैं जिसका कारण इसका लाभ दूसरे लोग उठा लेते हैं। और वह व्यक्ति देखता रह जाता है
ऐसा भी हो सकता है कि उसकी योजना जानकर कोई शत्रु ही उसका लाभ उठा ले अथवा उसका काम बिगाड़ दे इसलिए चाणक्य ने अपनी योजना को गुप्त रखने की बात कही है आजकल का चलन ऐसा हो गया है कि व्यक्ति दूसरे की योजना में मीन मेक निकालकर उसे हतोत्साहित करते हैं। अथवा संकाय उत्पन्न कर देते हैं जिससे व्यक्ति का आत्मविश्वास क्षीण हो जाता है अतः हर दृष्टि से अपनी योजना को तब तक गुप्त रखना चाहिए जब तक कार्य पूरा ना हो जाए।
Foolishness is indeed painful, and verily so is youth, but more painful by far than either is being obliged in another person's house.
भावार्थ - निश्चित रूप से मूर्खता दुःख दायी है और यौवन भी दुःख देने वाला है परन्तु कष्टों से भी बडा कष्ट दूसरों के घर पर रहना है।
कष्टञ्च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम् ।
कष्टात् कष्टतरं चैव परगेहे निवासनम् ।।8।।
भावार्थ - निश्चित रूप से मूर्खता दुःख दायी है और यौवन भी दुःख देने वाला है परन्तु कष्टों से भी बडा कष्ट दूसरों के घर पर रहना है।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं। मूर्खता अनेक कष्टों की जड़ है मूर्ख व्यक्ति को उचित अनुचित का ज्ञान नहीं होता विवेकशून्य होने के कारण वह बहुत से ऐसे कार्य कर बैठता है। जिसकी वजह से उसे अपमानित तथा दंडित होना पड़ता है। इसी प्रकार जवानी भी कष्ट दाई है युवावस्था में व्यक्ति होश में कम जोश में अधिक रहता है। अतः आवेश में वह बहुत से ऐसे काम कर बैठता है जो दुखदायक और कष्टकारी होते हैं इन कष्टों से भी बड़ा कष्ट है।
किसी मजबूरी बस दूसरे के घर शरणार्थी बनकर रहना दूसरे के घर में रहने वाला उसकी कृपा का मोहताज होता है। वह अपने मन मुताबिक कोई कार्य नहीं कर पाता मामूली फेरबदल के लिए भी उसे अपने शरणदाता की सहमति की आवश्यकता होती है। मन मुताबिक खा नहीं सकता जो दूसरे ने दे दिया उसे वही खाना होता है। तात्पर्य यह है कि उसे सब कुछ अपने शरणदाता की इच्छा अनुसार करना पड़ता है। उसकी अपनी निजी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है।
किसी मनचाही बात की ना होने पर उसे सब्र का घूंट पीना पड़ता है। यदि वह अपनी इच्छा पूर्ति का प्रयास करता है। तो कई मामलों में उसे अपमानित भी होना पड़ता है। इसलिए चाणक्य इस बात को मूर्ख था से अधिक कष्ट कर बताते हैं।
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो नहि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ।।9।।
भावार्थ - एक पर्वत मै मणि नहीं होता और साधु लोग सभी जगह नहीं मिलते और हर एक वन मै चन्दन के वृक्ष नहीं होते।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं। कि जिस प्रकार सभी पर्वतों पर माणिज्य नहीं होते और ना ही सभी हाथियों के मस्तक पर मोती होता है उसी प्रकार सज्जन पुरुष भी सब जगह नहीं होते जिस प्रकार चंदन सभी वनों में नहीं पाया जाता है। यहां मुख्य बात यही है कि सज्जन और साधु पुरुषों का जीवन में मिलना अत्यंत दुर्लभ है।
पुत्राश्च विविधैः शीलैर्नियोज्याः सततं बुधैः ।
नीतिज्ञाः शीलसम्पन्ना भवन्ति कुलपूजिताः ।।10।।
Wise men should always bring up their sons in various moral ways, for children who have knowledge of Niti-sastra and are well behaved become a glory to their family.भावार्थ - बुद्धिमान लोगों का कर्तव्य होता है की वे अपनी संतान को अच्छे कार्य-व्यापार मै लगाए क्योकि नीति के जानकार व् सदव्यवहार वाले व्यक्ति ही कुल मे सम्मानित होते हैं।
व्याख्या- प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी संतान को योग्य बनाए उसकी संतान नीतिज्ञ हो श्रद्धाभावी व शीलवान हो, उसका चरित्र अच्छा हो, जिससे समाज में उन्हें सम्मान मिले ऐसे व्यक्ति किसी समाज नगर या देश विदेश में नहीं बल्कि पूरे विश्व में पूजे जाते हैं अर्थात आदर के पात्र बनते हैं। कुछ ऐसे मामले सामने आते हैं कि माता-पिता बुद्धिमान होते हुए भी मोहवश लाड प्यार में अपने बच्चों को बिगाड़ देते हैं।
बच्चे की क्षणिक खुशी के लिए वे उनके गलत कार्यों की भी सराहना करते रहते हैं। जिससे बच्चा बिगड़ जाता है। और आगे चलकर उसका भविष्य भी उन दुर्गुणों से प्रभावित होता है। अतः बच्चे को सही मार्गदर्शन दें उसके अन्दर अच्छे बुरे की समझ पैदा करें कुरीतियों एवं कुसंस्कारों से बचाएं, जिससे उसका चरित्र अच्छा बने वह शील स्वभाव के हों।
पढाएं लिखाएं ऐसे कि वह नीतिवान बने। माता पिता को भूलना नहीं चाहिए कि बच्चे की देश का भविष्य होते हैं। किसी एक बच्चे को सवारने का अर्थ है। देश सेवा। अपने लिए, कुल के लिए समाज के लिए, और देश के लिए प्रत्येक माता-पिता अपनी संतान को संस्कारी बनाएं यही उपरोक्त इस लोक में चाणक्य ने कहा है।
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा ।।11।।
भावार्थ - जो माता-पिता अपने बच्चौं को नहीं पढ़ाते ,वे उनके शत्रु हैं । ऐसे अनपढ़ बालक सभाके मध्य मे उसी प्रकार शोभा नहीं पाते ,जैसे हंसों के मध्य मे बगुला शोभा नहीं पाता।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य ने यह अति उत्तम बात उन माता-पिता के लिए कही है जो अपनी संतान को अत्यधिक लाड प्यार और दूसरी अन्य सभी सुविधाएं तो देते हैं किंतु उनकी शिक्षा की ओर ध्यान नहीं देते। ऐसे माता अपनी संतान की शत्रु और पिता बैरी के समान हैं।
ध्यान देने वाली बात है कि अनपढ़ व्यक्ति का किसी भी काल में सम्मान नहीं रहा। जिस काल में यह श्लोक लिखा गया है उस काल में माता-पिता बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते थे आज ही ऐसे बेवकूफ माता पिता मिल जाएंगे जो लाड प्यार में बच्चों को नहीं पढ़ाते। ऐसा अनपढ़ बच्चा जब बड़ा होता है तब वह पढ़े लिखो की सभा में बैठकर केवल मूर्खों की भांति पलकें झपकाते है।
इसे चाणक्य ने हंसों के मध्य बगुले की उपाधि दी है। उस समय जब युवावस्था में पढ़ाई लिखाई का अभाव बच्चे की उन्नति में बाधा डालता है तो बच्चा इसका सारा दोष माता-पिता को देता है कि हमारे मां-बाप ने अपने फर्ज को सही से अंजाम नहीं दिया। उस समय उस लाड प्यार को भी अनावश्यक समझा जाता है जो उसे मिलता है। इसलिए प्रत्येक माता-पिता का यह पहला कर्तव्य है कि वे बच्चों को शिक्षित करें।
लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्नतुलालयेत् ।।12।।
भावार्थ - अत्यधिक लाड़प्यार से शिष्य और पुत्र गुणहीन हो जाते है और ताड़ना से गुनी हो जाते है । भाव यह है कि यदि शिष्य और पुत्र को ताड़ना का भय रहेगा तो वे गलत मार्ग पर नहीं जायेंगे।
व्याख्या- प्रथम दृष्टि से ऐसा लगता है कि आचार्य चाणक्य की दृष्टि में पुत्र एवं शिष्य प्रेम का कोई महत्व नहीं है किंतु ऐसा नहीं है। लाड प्यार अति प्रदर्शन के लिए नहीं है। प्रत्येक माता-पिता के मन में अपने पुत्र के लिए अत्यधिक प्रेम होता है। यदि माता पिता की भांति पुत्र पर अत्यधिक प्रेम लुटाने का प्रदर्शन करें तो एक समय ऐसा आएगा। जब पुत्र को घर में किसी का डर नहीं रहेगा और वह बहुत से मामलों में मनमानी करने लगेगा मनमानी करने वाला पुत्र गलत राह पर चल पड़ता है।
उद्दंड हो जाता है और एक समय ऐसा भी आता है कि माता-पिता का भी अपमान करने में नहीं चूकता। इसलिए आचार्य चाणक्य पिता द्वारा पुत्र को ताड़ना देने के लिए पक्षधर हैं। इसी संदर्भ में शिष्य को लेते हैं सिर्फ भी पुत्र के समान होता है अतः जो बात पुत्र पर लागू होती है वह इस पर भी लागू होती है।
श्लोकेन वा तदर्धन पादेनकाक्षरेण वा ।
अवन्ध्यं दिवसं कुर्याद्दानाध्ययनकर्मभिः ।। 13।।
भावार्थ - एक श्लोक ,आधा श्लोक ,श्लोक का एक चरण, उसका आधा अथवा एक अक्षर ही सही या आधा अक्षर प्रतिदिन पढ़ना चाहिए।
व्याख्या- मनुष्य को चाहिए कि प्रतिदिन एक श्लोक पढ़े उसका अध्ययन अपने मन में करें। एक इस श्लोक पूरा पढ़कर समझने का समय ना मिले तो आधा श्लोक पढ़े और उसका मनन व अध्ययन करें। आधे इस श्लोक का भी समय ना मिले तो एक बार पढ़े और समझे । यदि इसका भी समय ना हो तो इस लोक का एक अक्षर ही पढ़े और उसका मनन करें। आचार्य श्री के कहने का तात्पर्य यही है कि व्यक्ति को कुछ ना कुछ स्वाध्याय करके अपने दिन को सार्थक बनाना चाहिए।
कुछ लोग दूसरे मामलों में व्यर्थ के कामों में अथवा धन कमाने में लगे रहते हैं मगर किसी अच्छी सीख देने वाली पुस्तक का एक अक्षर तक नहीं पड़ते । ऐसे लोगों के लिए चाणक्य ने कहा है कि वे अपना दिन निरर्थक ही व्यतीत करते हैं। चाणक्य कहते हैं कि किसी कारणवश यदि व्यक्ति स्वाध्याय ना कर सके तो उसे अपने उस दिन को सफल बनाने के लिए दान आदि करना चाहिए। इसके अतिरिक्त परोपकार एवं यज्ञ आदि करके भी व्यक्ति दिन को सफल बना सकता है।
इस तरह परोपकार एवं अन्य शुभ कर्म दिन में करने से मनुष्य रात्रि में सुख की नींद सोता है। इसी प्रकार वर्ष के 8 महीनों में एक ऐसा प्रयत्न करें कि वर्षा काल में सुख पूर्वक रह सकें। आयु के पूर्वार्ध मैं ऐसा कर्म करें जिससे वृद्धावस्था में सुख पूर्वक रह सकें और जीवन भर ऐसे कर्म करें जिससे मृत्यु के उपरांत परलोक में सुख से रहे। आचार्य चाणक्य का कहना है कि मनुष्य जन्म बड़े भाग्य से मिलता है अतः उसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए।
मनुष्य को चाहिए कि वह अपना समय अपना दिन वेदादि शास्त्रों के अध्ययन में ही बिताए तथा उसके साथ-साथ दान आदि अच्छे कार्य करें। जो व्यक्ति पूरे दिन में किसी शास्त्र अथवा उत्तम पुस्तक का एक अक्षर भी नहीं पड़ता उसे समझ लेना चाहिए कि उसका वह दिन व्यर्थ गया। इसके अतिरिक्त दिन को सार्थक करने का दूसरा उपाय है दान।
जो व्यक्ति स्वाध्याय ना कर सके उसे दान करके अपने दिन को सार्थक करना चाहिए। कहने का तात्पर्य हैकि दिन को निरर्थक न जाने दें। दान स्वाध्याय या जब तक यज्ञादि करके दिन को सार्थक बनाएं।
कान्ता वियोगः स्वजनापमानि । ऋणस्य शेषं कुनृपस्य सेवा।।
दरिद्रभावो विषमा सभा च । विनाग्निना ते प्रदहन्ति कायम् ।। 14।।
भावार्थ - स्त्री का वियोग ,अपने लोगों से अनाचार,कर्ज का बंधन ,दुष्ट राजा की सेवा,दरिद्रता और अपने प्रतिकूल सभा, ये सभी अग्नि न होते हुए भी शरीर को जला देते है।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि पत्नी का वियोग (किसी भी कारण पत्नी से अलग होना या पत्नी का ना होना) स्वजनों द्वारा किया गया अपमान किसी का ॠण ना चुका पाना अथवा किसी कारण शेष रह जाना और चेष्ठा करने पर भी चुकाया न जाना तथा निकृष्ट, दुष्ट, दंभी, अहंकारी स्वार्थी स्वामी की सेवा करने की पीड़ा यह कुछ ऐसे दुख है जो व्यक्ति को जीवन भर जलाते रहते हैं।
चाणक्य कहते हैं कि दरिद्रता भी व्यक्ति को इसकी पीड़ा नहीं पहुंचाती जितनी पीड़ा उपरोक्त बातें पहुंचाती हैं इनसे अग्नि के बिना ही व्यक्ति का शरीर दग्ध हो जाता है। व्यक्ति को कोई ऐसी चेष्टा करनी चाहिए की मृत्यु छोड़कर उसका अपनी पत्नी से अलगाव न हो। न ही ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करनी चाहिए जिससे अपने बंधु बांधव और संबंधी अपमान करें ।
किसी का क्षण भी यथासंभव थोड़ा-थोड़ा करके चुका देना चाहिए तथा चेष्टा करनी चाहिए की दुष्टस्वामी की सेवा से बचें क्योंकि यह बातें व्यक्ति को जीवन भर सताती रहती हैं और वह भीतर ही भीतर कुढ़ता रहता है।
नदीतीरे च ये वृक्षाः परगेहेषु कामिनी ।
मंत्रिहीनाश्च राजानः शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम् ।। 15।।
भावार्थ- नदी के किनारे खड़े वृक्ष ,दूसरे के घर गए स्त्री,मंत्री के बिना राजा,शीग्र ही नष्ट हो जाते है। इसमें संसय नहीं करना चाहिए।
व्याख्या- तेज बहाव वाली नदी के किनारों पर उगे वृक्ष शीघ्र नष्ट इसलिए हो जाते हैं की ना जाने कब नदी में उबाल आ जाए और उस का जल किनारों को अपने साथ बहा ले जाए। ऐसे में नदी किनारे के वृक्ष कहां सुरक्षित रहेंगे। दूसरे के घर में रहने वाले स्त्री अर्थात जो अपने परिवार को छोड़कर किसी दूसरे की आश्रित हो जाए उसके जीवन का कुछ भी पता नहीं।
ग्रह स्वामी कब उसे घर से निकाल बाहर करें। जब तक ग्रह स्वामी अच्छा है तब तक तो ठीक है ग्रह स्वामी का मन बदलते ही उस स्त्री का जीवन संकट में पड़ जाता है। इसी प्रकार राजा के बल होते हैं मंत्री। वही उसे अच्छे बुरे की तस्वीर समय-समय पर दिखाते रहते हैं। जिस राजा के पास मंत्री नहीं है उसके नष्ट होने में अधिक देर नहीं लगती। चाणक्य कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं है।
A brahmin's strength is in his learning, a king's strength is in his army, a vaishya's strength is in his wealth and a shudra's strength is in his attitude of service.
भावार्थ- ब्राह्मणों का बल विद्या है,राजाओं का बल उसकी सेना है,वेश्या का बल उसका धन है और शूद्रों का बल छोटा बन कर रहना है, अर्थात सेवा-कर्म करना है।
बलं विद्या च विप्राणां राज्ञां सैन्यबलं तथा ।
बलंवित्तञ्चवैश्यानां शूद्राणां परिचर्यिका ।। 16।।
भावार्थ- ब्राह्मणों का बल विद्या है,राजाओं का बल उसकी सेना है,वेश्या का बल उसका धन है और शूद्रों का बल छोटा बन कर रहना है, अर्थात सेवा-कर्म करना है।
व्याख्या- प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी बल से जीवित रहता है अपने उसी बल से वह मान सम्मान पाता है। यदि व्यक्ति के पास उसका संबंधित बल नहीं होता तो वह स्थान स्थान पर अपमानित होता है तथा बल हीन होने के कारण दूसरों से दबकर रहता है भयभीत रहता है ब्राह्मण के पास यदि विद्या ना हो तो उसे अपमानित होना पड़ता है और दबकर रहना पड़ता है
राजा का बल किसी सैन्य शक्ति से आंका जाता है जिस राजा के पास जितनी अधिक सैन्य शक्ति होती है उतना ही बलवान माना जाता है। आसपास के क्षेत्रों में उसकी धाक होती है दूसरे राजा उससे भयभीत रहते हैं कि ना जाने कब आक्रमण कर बैठे और उनके राज्य को हथिया ले जबकि सैन्य शक्तिहीन राजा की न सुकीर्ति होती है और ना ही वह वह सम्मानित समझा जाता है।
ऐसा सैन्य शक्ति विहीन राजा तो अपने राज्य की व्यवस्था भी कठिनाई से कर पाता है वैश्य अर्थात वणिकों का बल चाणक्य ने धन को कहां वणिकों का कार्य है वाणिज्य-व्यापार। व्यापार से वणिक धन कमाते हैं। जो जितना धनवान होता है उतना ही बलवान होता है और उसकी पहुंच भी धन के बल के कारण ऊंची होती है। यही हाल शूद्रों का होता है। शूद्रों का बल सेवा है।
अपनी सेवा से सूद्र भी अति उच्च स्थिति को प्राप्त कर सकता है। वह राजा का प्रिय पात्र हो सकता है ब्राह्मणों का कृपा पात्र हो सकता है और वैश्यों का भी किंतु जो शूद्र सेवा भाव से रहित है उसको बलहीन नहीं समझा जाना चाहिए।
अतः ब्राह्मण का कर्तव्य है कि वह अधिक से अधिक विद्या ग्रहण कर उसका प्रचार प्रसार करें राजा को चाहिए की प्रजा एवं राज्य की सुरक्षा के लिए सैन्य बल बढ़ाता रहे और उसका प्रदर्शन भी करता रहे वैश्य व्यापार वाणिज्य से अपने धन की शक्ति को बढ़ाएं और शुद्र सेवा भाव से दूसरों का मन जीते इसी में चारों वर्णों की भलाई है।
निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत् ।
खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वाचाभ्यागतोगृहम् ।। 17।।
भावार्थ - वेश्या निर्धन मनुष्यों को,प्रजा पराजित राजा को,पक्षी फल रहित वृक्ष को व् अथथि उस घर को,जिसमें वे आमंत्रित किये जाते हैं,को भोजन करने के पश्चात छोड़ देते है। ब्राह्मणों का बल विद्या है,राजाओं का बल उसकी सेना है,वेश्या का बल उसका धन है और शूद्रों का बल छोटा बन कर रहना है, अर्थात सेवा-कर्म करना है।
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने अतिथि को चेताया है कि वह अपने सम्मान की रक्षा करने के लिए गृहस्थी का घर भोजन करने के तुरंत छोड़ दे वहां डेरा जमाने की चेष्टा ना करें। कुछ लोग किसी के अतिथि बनकर जाते हैं और वहां की सुख सुविधाएं अथवा सु स्वादिष्ट पकवानों केलोभ में वहीं जमे रहते हैं यह ठीक नहीं है उन्हें अपमानित होना पड़ सकता है।
चाणक्य कहते हैं कि जिस प्रकार वेश्या निर्धन को, प्रजा पराजित राजाओं को और पक्षी फलहीन वृक्ष को त्याग देते हैं उसी प्रकार अतिथि को भोजन करने के बाद धन्यवाद कहकर गृहस्थी का घर छोड़ देना चाहिए
Brahmins quit their patrons after receiving alms from them, scholars leave their teachers after receiving education from them, and animals desert a forest that has been burnt down.
भावार्थ - ब्राह्मण दक्षिणा ग्रहण करके यजमान को,शिष्य विद्याध्ययन करने के उपरांत अपने गुरु को और हिरण जले हुए वन को त्याग देते हैं ।
गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम् ।
प्राप्तविद्या गुरुं शिष्या दग्धारण्यं मृगास्तथा ।। 18।।
भावार्थ - ब्राह्मण दक्षिणा ग्रहण करके यजमान को,शिष्य विद्याध्ययन करने के उपरांत अपने गुरु को और हिरण जले हुए वन को त्याग देते हैं ।
व्याख्या- इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने संकेत में यह बात समझाने की चेष्टा की है कि उद्देश्य पूरा होने के बाद व्यक्ति को किसी भी स्थान पर अनावश्यक रूप से रुके नहीं रहना चाहिए। यहीं वे इस ओर भी संकेत कर रहे हैं कि जहां उद्देश्य की पूर्ति होती दिखाई ना दे अनावश्यक रूप से वहां भी नहीं रहना चाहिए। वन में दग्ध हो जाने पर जिस प्रकार हिरण समझ लेता है कि अभी यहाँ कुछ मिलने वाला नहीं है इसलिए वे बहां नहीं रुकते हैं।
दुराचारी दुरादृष्टिर्दुरावासी च दुर्जनः ।
यन्मैत्रीक्रियते पुम्भिर्नरःशीघ्रं विनश्यति ।। 19 ।।
भावार्थ - बुरा आचरण अर्थात दुराचारी के साथ रहने से,पाप दृष्टि रखने वाले का साथ करने से मित्रता करने वाला शीग्र नष्ट हो जाता है।
व्याख्या- उपरोक्त श्लोक में उपरोक्त श्लोक में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति भले ही मित्रों से हीन रहे किंतु किसी दुराचारी से, दुष्ट से तथा इसी प्रकार के दूसरे कुटैबों से ग्रस्त व्यक्ति से मित्रता ना करें। यह न सोचे कि मैं बड़ा श्रेष्ठ तथा बुद्धिमान हूं और उनके दोस्त के दुर्गुण मुझे नहीं लगेंगे।
यह सत्य है की एक ना एक दिन वह अपने मित्रों के दुर्गुणों का शिकार अवश्य होगा जिससे उसकी मान प्रतिष्ठा आदि नष्ट होगी और सज्जनों के लिए कहा गया है कि जिन की प्रतिष्ठा गई उसका सब कुछ गया। जिसकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई , कीर्ति नष्ट हो गई , सम्मान नष्ट हो गया वह स्वय में नष्ट हो गया ऐसा जानना चाहिए।
The friendship between equals flourishes, service under a king is respectable, it is good to be business-minded in public dealings, and a handsome lady is safe in her own home.
भावार्थ - मित्रता बराबर वालों मे शोभा पाती है,नौकरी राजा की इच्छा होती है,व्यवहार मे कुसहल व्यापारी और घर माईन सूंदर स्त्री शोभा पाती है।
समाने शोभते प्रीतिः राज्ञि सेवा च शोभते ।
वाणिज्यंव्यवहारेषु स्त्री दिव्या शोभते गृहे ।। 20।।
भावार्थ - मित्रता बराबर वालों मे शोभा पाती है,नौकरी राजा की इच्छा होती है,व्यवहार मे कुसहल व्यापारी और घर माईन सूंदर स्त्री शोभा पाती है।
व्याख्या- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि प्रेम संबंध सम्मान, गुण-धर्म स्वभाव आदि आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति अथवा कुल से करना चाहिए। नौकरी राजा की अर्थात सरकारी नौकरी करनी चाहिए क्योंकि उसी में निश्चितता है। व्यापार की सफलता के लिए व्यक्ति को व्यवहार कुशल होना चाहिए। व्यवहार कुशल व्यक्ति की व्यापार में सफलता तब आता है। उसी प्रकार घर की शोभा उत्तम गुणों वाली स्त्री से है गुणों से रहित या दुर्गुणी स्त्री घर को नर्क बना देती है।