कौन थे विष्णुगुप्त आचार्य चाणक्य
"चाणक्य नीति" ग्रन्थ पढने से पहले आपको आचार्य चाणक्य के बारे में जानना चाहिए।
उन दिनों भारत के एक राज्य मगध में महाराजा धनानंद का राज्य था। मगध एक बहुत शक्तिशाली राज्य था। महाराजा धनानंद बिलासी प्रकृति के थे। वे अप्सरायों तथा सुंदरियों में डूबे रहते थे। पुरे राज्य का भार शकटार और कात्यायन जैसे सुयोग्य मंत्रियों को सोंप दिया था पुरे राज्य को यही दोनों मंत्री चलाते थे। और इन्हीं में से थे गृहमंत्री राक्षस। शकटार उन दिनों मगध के प्रधान अमात्य थे।
महामात्य शकटार महाराज कि विलासियों से बहुत चिंतित थे। उनके मित्र थे ब्रह्मण चणक।
ब्रह्मण चणक एक क्रषका्य ब्रह्मण थे और पक्के देशभक्त थे।वे महामात्य को चेताते रहते थे कि धनानंद की विलासी प्रकृति एक दिन मगध को पतन के कगार पर ले जाएगी। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि प्रजा के धन को अपनी बिलासितायों की भेंट चढाने बाले दम्भी और दुराचारी महानंद को राजगद्दी से उतारकर मगध की रक्षा की जाये।
महामात्य शकटार इस बात को बखूबी समझते थे, किन्तु विवश थे। गृहमंत्री राक्षस जैसे लोग धनानंद के बफादार थे। ऐसे में अकेले शकटार भला कर भी क्या सकते थे? दूसरे महाराज धनानंद उन्हें धनानंद संदेह की दृष्टि से देखते थे क्योकि गृहमंत्री राक्षस जिनकी दृष्टि महामात्य के पद पर थी,उनके विरुद्ध महाराज धनानंद को भड़काते रहते थे।
ब्रह्मण चणक भी कूटनितिज्ञ थे और समय समय पर शकटार को परामर्श देते रहते थे, किन्तु अमात्य राक्षस भी कुछ कम नहीं था। उसकी पैनी नजरें सब की ओर लगी रहती थीं। एक दिन उसने महाराज धनानद के मन में शकटार और ब्रह्मण चणक के प्रति संदेह का बीज बो दिया। फलस्वरूप ब्रह्मण चणक, शकटार और शकटार की पत्नी और पुत्री को महाराज के आदेश अनुसार बंदी बना लिया गया और राक्षस को नया महामात्य घोषित कर दिया गया।
ब्रह्मण चाणक्य और शकटार पर राजद्रोह का आरोप था।
महाराज धनानंद शकटार से ज्यादा,खरी खरी सुनाने बाले और अपनी कारगुजारियों का प्रबल विरोध करने बाले ब्रह्मण चणक से अत्यंत क्रोधित थे अत: कायदे कानून को ताक पर रखकर उन्होंने अँधा आदेश जारी किया कि इस फुल से ब्रह्मण का सिर काट कर चौराहे पर लटका दिया जाये जिससे धनानंद के विरोधियों को सबक मिले, किन्तु महामात्य राक्षस इस पक्ष में नहीं थे।
उन्होंने ब्रह्मण चणक से निवेदन किया कि वो धनानंद से माफ़ी मांग लें। मगर ब्रह्मण चणक भी अपने निश्चय पर दृढ़ थे चाहे जान चली जाये किन्तु दुराचारी के सामने नहीं झुकेंगे।
राक्षस जनता था कि ब्रह्मण की हत्या करने से प्रजा में रोष फ़ैल जायेगा। अत: उसकी प्रबल इच्छा थी कि इस सन्दर्भ में रक्तपात कि नोबत ना आये, मगर न ब्रह्मण चणक झुकने को तैयार थे और न ही महाराज धनानंद ब्रह्मण को बिना दण्डित किये मान रहे थे।
फलस्वरूप ---------
ब्रह्मण चणक का शीश काटकर चौराहे पर लटका दिया गया।
पुरे राज्य में हा हा कार मच गया।
चारो ओर महाराज धनानंद और राक्षस का आतंक कायम हो गया।
इन्हीं ब्रह्मण चणक के पुत्र थे_चाणक्य।
पिता को बंदी बनाये जाने के बाद बालक चाणक्य जंगलों में पलायन कर गया था। वह समझ गया था कि क्रूर नन्द उसे भी मरवा देगा। भयानक बारिश और आंधी तूफान चल रहा था और उस रात ब्रह्मण चणक का सिर एक चौराहे पर टंगा था। बालक चाणक्य को इस बात का पता चला तो उसका ह्रदय हा हाकर उठा। बड़े साहस और परिचय देकर वह बालक आंधी तूफान से बचता बचाता हुआ उस चौराहे तक पंहुचा और किसी प्रकार अपने पिता का शीश लेकर गंगा तट पर पहुंचा और उसका अंतिम संस्कार किया।
बाद में अपने पिता कि राख एक हांड़ी में भरकर एक पेड़ कि जड़ में छुपा दी और प्रतिज्ञा ली कि इस राख को उसी दिन गंगा में प्रवाहित करेगा जिस दिन इस दुराचारी धनानंद से अपने पिता की म्रत्यु का बदला ले लेगा।
उसके पश्चात चाणक्य ने एक नई यात्रा आरम्भ की। सबसे पहले अपनी भेष भुसा को चेंज किया। जान - बूझकर अपने आप को कुरूप बना लिया। और अग्नि स्नान करके अपने बदन को झुलसा लिया।
इस पर भी उनको तसल्ली न हुई तो एक पत्थर से अपने दो दांत तोड़ लिए।
बालक चाणक्य कोई ऐसा चिन्ह नहीं छोड़ना चाहता था जिससे बह चणक पुत्र के रूप में पहचाना जा सके।
आग से झुलसा काला शरीर , दांत टूटने के कारण मुह से बहता खून , मोटी मोटी लाल सुर्ख आखें ।
अपने इस भयानक रूप को देखकर वह बहुत भयानक हंसी हंसा।
उसकी हंसी इतनी खोपनाक थी कि आसपास का वातावरण भी सहम गया। बहती हवा रुक सी गई। गंगा की कल कल करती धारा की चंचलता जैसे समाप्त हो गई।
अब कौन कह सकता है। कि मैं चणक पुत्र कौटिल्य हूँ। मर गया कौटिल्य। आज से मेरा नाम विष्णुगुप्त है। कौटिल्य उस दिन पैदा होगा जिस दिन मै अपने पिता को दिया हुआ वचन को पूरा कर दूंगा।
मगध का कायाकल्प और महानंद का समूल नाश।
वह बड़ी ही भीषण रात थी। घटाओं के कारण चारों और घनघोर अँधेरा था। हांलाकि रात्रि का अंतिम पहर बीत रहा था,मगर लगता था जैसे अभी बहुत रात बांकी है। अब बालक चाणक्य एक अनजाने सफ़र पर चल दिया।
चलते चलते वह कोंसों दूर निकल आया। शरीर में अग्नि स्नान की जलन, दांत टूटने का दर्द और थकान अब उससे चला नहीं जा रहा था। जब लड्खडाकर गिरने की नौबत आ गई तो वह नदी किनारे एक वृक्ष के तने से पीठ टिकाकर बैठ गया। उसके बाद उसे होश नहीं रहा। और उसे बहुत तेज नीद आ गई।
सुबह को जब आचार्य मोहन स्वामी गंगा स्नान से लौट रहे थे कि पेड़ से पीठ टिकाये बैठे बालक को देखकर चौंक पड़े- "अरे! यह कौन है?"
निकट जाकर उन्होंने देखा, बालक अर्द्ध मुर्छित था और 'पानी पानी 'पुकार रहा था।
'ओह! लगता है यह किसी दुर्घटना का शिकार हो गया है।' आचार्य मोहन स्वामी ने जल की कुछ छीटें उसके मुंह पर मारे।
कुछ जल चुल्लू से उसके मुंह में डाला।
बालक में कुलमुलाकर अपनी ऑंखें खोलीं और अपने सामने एक दिव्य मूर्ति को देखकर स्तब्ध सा रह गया।
"तुम कौन हो बालक?" आचार्य मोहन स्वामी ने आत्मीयता से पूंछा-"और इस अवस्था में कैसे पहुंचे? क्या कोई दुर्घटना घटी है?"
विष्णुगुप्त उठे।
समझ गए कि नियति का खेल शुरू हो चुका है।आचार्य को प्रणाम कर बताया-"मेरा नाम विष्णुगुप्त है मैं इस संसार में अकेला हूँ। महात्मा बोले तुम इस दशा में कैसे पहुंचे। चाणक्य बोले एक दुर्घटना हो गई महाराज कि मै जंगल से लकड़ियाँ बीन बेचकर अपनी गुजर करता हूँ। लकड़ियाँ जलाकर खाना बनाते समय मेरे कपड़ों में आग लग गई। जिसके कारण मेरा पूरा शरीर जल गया है। बड़ी मुश्किल से गंगा में पहुँच कर अपने शरीर पर लगी आग को बुझाया। इस कारण मेरा ये हाल हो गया महाराज। किसी ठौर ठिकाने की तलाश में गाँव की ओर जा रहा था कि पुरे शरीर में दर्द होने के कारण मैं इस पेड़ के नीचे बैठ गया और न जाने मैं कब मुर्छित हो गया।
"तो क्या तुम बिलकुल अकेले हो तुम्हारा कोई नहीं है।"
"नहीं महाराज! ऐसा नहीं है वो मेरे साथ है।" विष्णुगुप्त ने असमान की ओर तर्जनी ऊँगली उठाकर कहा - "आप मेरे साथ हैं।"
आचार्य मोहन स्वामी की परखी नजरें गहरे से उस बालक का निरिक्षण कर रहीं थीं। इतना तो वह समझ ही चुके थे कि ये बालक बहुत बुद्धिमान और साहसी है। इस बालक की ये अवस्था लकड़ियाँ काटने और गुजर बसर करने की नहीं है बल्कि ज्ञान अर्जित करने की है। अगर इसे दिशा निर्देशन मिले तो यह उन्नति की मार्ग में बहुत आगे तक जा सकता है। यही सब सोचकर आचार्य मोहन स्वामी ने कहा-"देखो पुत्र! मैं गाँव की पाठशाला में अध्यपन का कार्य करता हूँ। अकेले रहता हूँ। यह उम्र तुम्हारी पड़ने लिखने की है, अगर कुछ ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो तो मेरे साथ चल सकते हो और अगर आप ज्ञान नहीं प्राप्त करना कहते हो फिर भी चल सकते हो क्योकि इस समय सबसे ज्यादा तुम्हे देखभाल कि आवश्यकता है।
यह बात सुन विष्णुगुप्त का दिल गद गद हो गया। उसे लगा , उसका संकल्प पूरा करने के लिए श्रीहरि आचार्य मोहन स्वामी के रूप में उसके साथ आ गए हैं। तुरंत ही उसने झुककर आचार्य के पैर स्पर्श किये और बोला-"आपकी इस अनुकम्पा का मैं जीवन भर ॠणी रहूँगा, गुरुदेव। आप जैसे परम पुरूष कि छत्र छाया में कुछ ज्ञान अर्जित कर सका तो सच में मनुष्य हो जाऊंगा।"
और फिर इस प्रकार विष्णुगुप्त स्वामी मोहन के साथ पाठशाला आ गए। मोहन स्वामी ने अपने पुत्र कि भांति उसका उपचार किया।
कुछ ही दिनों में विष्णुगुप्त पूरी तरह से ठीक हो गए।
उसके बाद आचार्य मोहन स्वामी ने विष्णुगुप्त को पूरी तरह शिष्य स्वीकार कर शिक्षा देना प्रारंभ किया।कुछ ही समय में विष्णुगुप्त में केबल आचार्य ही नहीं बल्कि सभी छात्रों का दिल जीत लिया।
वे कुशाग्र बुद्धि थे।
सभी विष्णुगुप्त कि बुद्धि की प्रसंसा करते थे। एक बार सुना हुआ पूरा पाठ बिना पोथी खोले पूरा सुना दिया करते थे। आचार्य का हर एक वाक्य ब्रहम वाक्य बनकर उसके दिल पर अंकित हो जाता था।
इस प्रकार चाणक्य की प्राथमिक शिक्षा पूरी हुई।
अब वे तक्षशिला विश्वविद्यालय में जाकर पढने के इच्छुक थे, किन्तु यह काम बहुत कठिन था। तक्षशिला में प्रवेश पाने के लिए तो कई देशों के राजकुमार तक प्रतिक्षा सूची में थे, फिर भला अनाथ और निर्धन विष्णुगुप्त को बहां स्थान कैसे मिलता।
मगर विष्णुगुप्त धुन के पक्के थे। उन्हें अपनी बुद्धि पर पूरा भरोसा था।
उन्होंने अपनी यह इच्छा आचार्य मोहन स्वामी को बताई तो आचार्य मोहन स्वामी ने तक्षशिला में पढ़ाने बाले अपने एक मित्र आचार्य पुण्डरीकाक्ष का पता देकर भेज दिया।
विष्णुगुप्त पुण्डरीकाक्ष से जाकर मिले।
पुण्डरीकाक्ष ने उन्हें बताया कि यह असंभव है। उन्हें विद्यालय में प्रवेश नहीं मिल सकता। विष्णुगुप्त ने उनसे बहुत निवेदन किया तो पुण्डरीकाक्ष ने उन्हें कुलपति से मिलवाने का आश्वासन दिया।
फिर यह समय भी जल्दी ही आगया जब आचार्य पुण्डरीकाक्ष विष्णुगुप्त को लेकर कुलपति के पास पहुचे। उनके साथ एक कुरूप से युवक को देखकर कुलपति ने कहा-"यह कौन है?"
पुण्डरीकाक्ष कोई उत्तर दे पाते उससे पहले ही विष्णुगुप्त बोल पड़े-"मैं कौन हूँ? यही जानने के लिए आचार्य की कृपा से आपके श्री चरणों में उपस्थित हुआ हूँ।"
कुलपति विष्णुगुप्त के इस उत्तर से बहुत प्रसन्न हुए, और बोले-"युवक तो अति बुद्धिमान जान पड़ता है।"
"हाँ महोदय!"पुण्डरीकाक्ष बोले-"इसकी कुशाग्र बुद्धि कि प्रशंसा तो मेरे एक सहपाठी ने भी इस पत्र में लिखी है। पत्र में उन्होंने लिखा है कि अल्पकाल में ही विष्णुगुप्त ने व्याकरण और गणित में पाण्डित्य कर लिया है। अब कह उच्च शिक्षा प्राप्ति की अभिलाषा से तक्षशिला में प्रवेश का इच्छुक है, अत: इस कार्य में आप इसकी सहायता करें। श्रीमान! यदि आपकी क्रपा हो गई तो यह अद्भुत प्रतिभाशाली छात्र हमारे यहाँ शिक्षा प्राप्त कर सकेगा।"
" इच्छा तो मेरी भी यही है पुण्डरीकाक्ष,किन्तु यहाँ कि स्थिति तुमसे छिपी नहीं है,भारत के ही नहीं,विदेशों के भी कई राजकुमार प्रतिक्षारण हैं,ऐसे में बताओ मैं क्या करूँ?"
"आप वही करें आचार्य जो एक पिता अपने पुत्र के लिए करता अथवा सोचता है।" आचार्य पुण्डरीकाक्ष के उत्तर देने से पहले ही विष्णुगुप्त बोले- "मेरा इस संसार में कोई नहीं है आचार्य। मैं आपको ही माता पिता मानकर आपकी शारण में आया हूँ। फिर मेरी यह इच्छा भी नहीं है कि मिझे राजपुत्रों के साथ बैठकर पढने कि अनुमति मिले। मैं तो कक्षा के द्वार पर बैठकर आचार्य के कंठ से उद्धत वाणी सुनना चाहता हूँ। माँ सरस्वती और आपकी कृपा से मेरा जीवन सफल हो जायेगा।"
"तुम्हारी भावना देखकर मेरा दिल भर आया है। तुम्हारे स्वर में वेदना है विष्णुगुप्त। तुम्हारे अन्दर मैं एक ज्वाला सी धधकती देख रहा हूँ। ठीक है, हम तुम्हे अपना पुत्र मानकर विश्व विद्यालय में पढने की अनुमति देते हैं।"
इस प्रकार विष्णुगुप्त उच्च शिक्षा के अध्यन में लग गए।
उधर।
मगध जल रहा था।
महाराज नन्द रास रंग में डूबे थे।
प्रजा में असंतोष फैल रहा था।
विदेशी अक्रमणकारी तथा विद्रोही शत्रु रजा मगध पर नजरें लगाये बैठे थे।
किन्तु महामात्य ने पूरी स्तिथि संभाल रखी थी।
इधर राज्य में एक और घटना घट चुकी थी। महाराज महानंद ने एक नई शादी कि थी। नई रानी का नाम मूरा था। उसने एक पुत्र को जन्म दिया था। जिसका नाम चन्द्र रखा गया था। किन्तु रानी के चरित्र पर संदेह होने के कारण महाराज धनानंद ने उसे राज्य से निकाल दिया था।
रानी मूरा अब एक गुप्त स्थान पर रहती थी और पंखे बनाकर अपनी गुजर बसर कर रही थी। उसका पुत्र बड़ा ही साहसी था। उसका साहस देखकर अवध के सेवामुक्त हो चुके सेनापति उसे गुप्त रूप से शास्त्र शिक्षा दे रहे थे। चन्द्र के ह्रदय में अपने पिता के प्रति आक्रोश था। वह नहीं जनता था कि मगधपति धनानंद ही उसका पिता है।
इसी प्रकार बक्त तेजी से गुजरता जा रहा था।
चाणक्य ने खूब मन लगाकर अपनी शिक्षा पूर्ण की।
उसके बाद अपने पांडित्य के बल पर वे तक्षशिला में ही प्राचार्य के पद पर आसीन हो गए। एक बार वे अपने शिष्यों को लेकर देशाटन पर निकले, तब उन्होंने चन्द्र को एक वृक्ष के नीचे राजा बनकर बालकों का न्याय करते देखा, तब वे मूरा से मिले और उसकी प्रशंसा की। मूरा यह जानकर बहुत खुश हुईं कि तक्षशिला के आचार्य विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्र के रचियता कौटिल्य उसके पुत्र से प्रभावित हैं। चाणक्य ने उच्च शिक्षा के लिए तक्षशिला का निमंत्रण दिया।
फिर एक दिन चाणक्य मगध कि ओर चले।
मगध के अमात्य शकटार से मार्ग में उनकी भेंट हुई। अमात्य शकटार उनके पिता चणक के अन्तरंग मित्र थे और विद्रोह के आरोप में उसके पिता के साथ बंदी बना लिया गए थे। बाद में राक्षस द्वारा उन्हें मुक्त कर दिया गया था किन्तु हठी, न्यायप्रिये एवं अत्याचारों का विरोध करने वाले चणक का सिर काट दिया गया।
शकटार को चाणक्य ने बताया कि उसके ह्रदय में पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए आग धधक रही है और उसने सौगंध खाई थी कि वे नन्द का समूल नाश करके अपने पिता के अधूरे कार्य को पूरा करेंगे।
शकटार महानंद के मंत्री अवश्य थे किन्तु आज भी वे उसकी विलासिताओं से दुखी थे और चाहते थे कि किसी प्रकार मगध को ननद के अत्याचारों से मुक्ति मिले, अत: वे चाणक्य के साथ हो गए और उसे अपने घर ले आए।
उन्ही दिनों नन्द की माता का श्राद्ध का महोत्सव था। सारी व्यवस्था अमात्य शकटार के हांथो में थी। उन्ही कि कोशिशों से आचार्य चाणक्य को उस उत्सव में अग्रासन दिया गया।
अन्य बहुत से ब्रह्मण बहां उपस्थित थे, वे कुरूप और काले कलूटे चाणक्य को अग्रासन पर बैठे देखकर नाराज हुए किन्तु विरोध करने का साहस भला किसमें था?
तभी सभा में धनानंद आये और आगे काले कुरूप ब्रह्मण को देखकर विफर हो उठे। उन्होंने चाणक्य को अपमानित किया और सभा से धक्का देकर निकाल दिया।
हालाँकि राक्षस ने उसे बताया कि आमंत्रित ब्रहमण तक्षशिला के सुप्रसिद्ध आचार्य विष्णुगुप्त वात्स्यायन हैं जिन्होंने 'कौटिल्य' के नाम से 'अर्थशास्त्र' कि रचना की है, किन्तु दुराचारी, दंभी और अन्यायी धनानंद ने किसी कि नहीं सुनी।
यह देख दूसरे ब्रह्मण बहुत प्रसन्न हुए किन्तु जब चाणक्य को धक्का देकर धनानंद ने पुरे ब्रह्मण समुदाय को पाखंडी और धूर्त कहकर अपमानित किया तो पुरे ब्राह्मण समुदाय में आक्रोश फ़ाइल् गया।
तब ब्राह्मण चाणक्य ने अपनी शिखा खोलकर प्रतिज्ञा की कि इस शिखा में वे गांठ अब तब तक नहीं लगायेंगे जब तक मगध को धनानंद के अत्याचारों से मुक्त नहीं कर देंगे।
बस इसके बाद विष्णुगुप्त वात्स्यायन वहां एक पल भी नहीं रुके।
बाद में उन्होंने राजनीति की एक ऐसी शतरंज बिछाई कि चारों ओर उन्हीं की जय जय कार होने लगी।
विश्व विजय का स्वप्न देखने बाले सिकंदर को उन्होंने लताड़ दिया।
शक्तिशाली महामात्य राक्षस के होते चाणक्य ने अपनी शपत पूरी कर अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लिया और भारत पर महानंद और मूरा के पुत्र चन्द्रगुप्त को आसीन कर पुरे भारत को एक झंडे के नीचे लाने जैसे दुरूह कार्य कर दिखया।
उसके बाद चन्द्रगुप्त ने उन्हीं की नीतियों का अनुसरण करते हुए एक लम्बे समय तक भारत बर्ष पर शासन किया।